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बेगानों की महफिल में तो - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2222    2222    2222    222
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देता  है  आवाजें  रूक-रूक  क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
***
कब  मागे  मयखाने  साकी  अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
***
देखेगी  तो  कर  देगी  फिर  बदनामी  वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
***
बेगानों  की  महफिल  में  तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों  की  महफिल  में  कैसे अपना लूँ बेहोशी को
***
होते  हो  बेपर्दा   खुद  क्यों  पलपल यूँ हंगामा कर
लोगों का क्या उनको जुटना यारो लज्जत पोशी को
****
इनसे ही है रंगीं जीवन बिन इनके वीराना सब कुछ
रिश्ते-नातों   को   मत  कह तू आते हैं खूँ-नोशी को
***
हम आगोशी- आलिंगन        

रूपोशी - पर्दा करना  / मुँह छिपाना
लज्जत पोशी - रस लेना (तमाशा देखना)

(रचना - 31 जुलाई 2010 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 793

Comment

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Comment by Santlal Karun on August 20, 2014 at 6:02pm

आदरणीय धामी जी ,

भावपूर्ण ग़ज़ल ; साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by Shyam Narain Verma on August 20, 2014 at 5:55pm
" सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई   "

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 4:12pm

बेगानों  की  महफिल  में  तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों  की  महफिल  में  कैसे अपना लूँ बेहोशी को----बेहतरीन 
***
होते  हो  बेपर्दा   खुद  क्यों  पलपल यूँ हंगामा कर
लोगों का क्या उनको जुटना यारो लज्जत पोशी को---सही बात 

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई लक्ष्मण धामी भैया बहुत- बहुत बधाई आपको 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 20, 2014 at 2:01pm

धामी जी

जिस तरह आपने यह गजल निभायी है i शुभान अल्लाह i  उस्तादों  जैसी बात है इसमें i

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