(चार ग़ज़लें)
1
रास्तों को देखिए कुछ हो गया है आजकल
इस शहर में आदमी फिर खो गया है आजकल
काँपते मौसम को किसने छू लिया है प्यार से
इस हवा का मन समंदर हो गया है आजकल
अजनबी-सी आहटें सुनने लगे हैं लोग सब
मन में सपने आके कोई बो गया है आजकल
मुद्दतों तक आईने के सामने था जो खड़ा
वो आदमी अब ढूँढने खुद को गया है आजकल
आदमी जो था धड़कता पर्वतों के दिल में अब
झील के मन में सिमटकर सो गया है आजकल
2
दूर तक फैला हुआ संसार है
ये मेरे अंतर का ही विस्तार है
तुम तलक पहुँचूं तो पहुँचूं किस तरह
क़ैद में हूं हर तरफ दीवार है
नाम पर जिसके ये ख़त है रात भर
खांसता है, आजकल बीमार है
अब हो ऐसा कुछ पुकारो तुम मुझे
मैं कहूँ, हाँ, हर कोई तैयार है
ख़्वाब सब सच हों तुम्हारे, इसलिए
जंग में हूँ, हाथ में तलवार है
आज तक जो भी लिखा ‘राकेश’ ने
गीत सारे, हर ग़ज़ल बेकार है
3
मेरे दर्द को पहचान ले
फिर मस्जिदों से अजान दे
ये भूख से मर जाएगा
इसे मौत कोई आसान दे
मुझे गाँव याद है आ गया
मुझे गाँव का वो मचान दे
हर आदमी चालाक है
इक आदमी नादान दे
संसार की तू फ़िक्र कर
मेरी तरफ भी ध्यान दे
इन जंगलों में मौत है
तू आदमी को मकान दे
4
अजनबी जब से ज़माना हो गया है
आदमी थोड़ा सयाना हो गया है
बात जबसे हक़ की है करने लगा
आप कहते हैं दीवाना हो गया है
ज़िक्र फिर से आंसुओं का हम करें
छोड़िए गाना-बजाना हो गया है
आप दर्पण पर न यूं चिल्लाइए
आपका चेहरा पुराना हो गया है
महफ़िलों में आपके चर्चे हुए
यूं न आना भी तो आना हो गया है
"मौलिक व अप्रकाशित"
(डॉ. राकेश जोशी)
Comment
आदरणीय माहेश्वरी जी,
आपको मेरी ग़ज़लें पसंद आईं. मैं इसके लिए आपका आभारी हूँ.
आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
बहुत शानदार ग़ज़ल है ...बहुत बहुत बधाई आपको
बहुत शानदार ग़ज़ल है आपकी राकेश भाई जी ....बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय अजय जी,
आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
आदरणीय कल्पना जी,
आपको मेरी ग़ज़लें पसंद आईं. आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
आदरणीय राजेश जी,
आपको मेरी ग़ज़लें पसंद आईं. मैं इसके लिए आपका आभारी हूँ. आपके सुझावों पर अमल होगा.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
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