212 212 212 212
रात जगता रहा दिन में सोता रहा
चाँद के ही सरीखे से होता रहा
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
रस्म मैंने निभायी नहीं है मगर
दिल में रिश्तों को अपने संजोता रहा
जो न मांगा मिला मुझको सौगात में
जिसको चाहा वो मुश्किल से होता रहा
मैंने अपने गले से लगाया जिसे
पीठ पर वो ही खंजर चुभोता रहा
अमित कुमार दुबे मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील जी आपका हार्दिक आभार
आदरणीय नीलेश जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका
आ0 राजेश जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका
आदरणीय narendrasinh chauhan जी बेहद शुक्रिया आपका
आदरणीय मदन मोहन जी आपका हार्दिक धन्यवाद
बहुत बढ़िया अमित भाई इस रचना के लिये दाद कुबूल फरमायें, रचना पर कुछ सार्थक चर्चाएँ भी हुई हैं उनपर भी थोड़ा विचार करें शुभकामनाएँ l
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा .... वाआआआआह बेहद उम्दा शेर .... सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
बहुत ख़ूब ...आपने बह्र 2122 1221 2212 ऐसे लिखी है ..मात्राए यही हैं लेकिन अरकान 212/212/212/212 ऐसा लिखेंगे
बाक़ी आ. राजेश कुमारी जी ने सुझाव दिए हैं वो गौर करने जैसे हैं ...सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई
बादलों की हुकूमत हुई चाँद पर
चाँद छुपकर अँधेरों में रोता रहा
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
अच्छे अशआर हुए हैं बहुत- बहुत बधाई अच्छी ग़ज़ल है मतले के उला और बेहतर कर सकते हैं रात के बाद भर या को की कमी खल रही है
उल्टे रस्ते ही जब मुझको भाने लगे
बारी बारी से अपनों को खोता रहा
बहुत सुन्दर गजल ,हार्दिक बधाई
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