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जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।" 

(मौलिक और अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 10, 2014 at 12:27pm

आ० गुमनाम पिथौरागढ़ी जी, शुक्रिया।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 9, 2014 at 6:27pm

आदरणीय योगराजभाईजी, आपकी लघुकथा पर आपसे अपनी भावनायें खूब साझा कर चुका हूँ.
एक ऐसी दशा से हमारा समाज गुजर रहा है जहाँ परिवारों के शोहदे अपनी उड़ान में हैं. नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना दकियानुसी की बातें मानी जाने लगी हैं.
इन सबों का खामियाजा परिवार की स्त्रियाँ ही तो उठाती हैं.
आपने इस विन्दु को बहुत ही प्रभावी ढंग से उठाया है. आपकी लघुकथा पर आपको बधाई देना छोटा मुँह बड़ी बात जैसी लगती है, आदरणीय.

यह अवश्य है कि आपकी इस प्रस्तुति पर भाई शुभ्रांशु की अत्यंत ही पूरक टिप्पणी आयी है. बहुत खूब !

सादर

Comment by विनय कुमार on July 7, 2014 at 6:15pm

आदरणीय योगराजजी , बेहद शशक्त लघुकथा , साधुवाद आपको |

Comment by बृजेश नीरज on July 6, 2014 at 12:01pm

वाह! बहुत सुन्दर! यह लघुकथा इस विधा के मानक तय करती है! आपको बहुत-बहुत बधाई!

Comment by vijay nikore on July 5, 2014 at 11:44am

आत्ममुग्धता की उड़ान लिए, अह्म में डूबे, हम जीवित होते हुए भी मर चुके होते हैं। लघु कथा संदेश देने में बहुत ही सफ़ल हुई है.... यह इसलिए भी कि इसमें आपने शब्दों को तोला हुआ है। एक भी शब्द फ़ालतू नहीं है। आपको हार्दिक बधाई।

Comment by Shubhranshu Pandey on July 4, 2014 at 10:22pm

आदरणीय योगराज जी, 

एक कहावत है. चींटे के पंख निकलना.

आपकी कथा के साथ ही ऎसा लगता है कि बारिश में निकलने वाले ढेरो चींटे पंखो के साथ निकल आये हैं..बेताब है उडने के लिये..रात में इधर उधर मंडराते रहते हैं और सुबह बिना पंखो वाली चीटियां उन पंखो और मरे हुये चींटियों को अलग् अलग लादे कतार में चलती जाती हैं...अब पता चला कि ये ढोने वाली चिटियां उनकी माता और पत्नी हैं जो सफ़ेद साडियों में लिपटने को तैयार होने जा रही होती हैं...

इस समाज में पुरुषों के अनावश्यक उडान का खामियाजा महिलाओं को उठाना पडता है..वो या तो सफ़ेद साडियों में आ जाती हैं या फ़िर पंखों के साथ उडने वालों का साथ नहीं दे पाती हैं....

सुन्दर् कथा..कई कई भाव एक साथ उभर कर आ रहे हैं 

सादर.

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 4, 2014 at 7:42pm
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ,
बहुत अच्छी लघु- कथा . पंख हवा में उड़ा तो सकते हैं पर हवा मैं एक ढौर नहीं दे सकते हैं . पर देखिये जो एक बार हवा में लहरा क्या जाते हैं , उड़ने लग जाते है . जमीन के हैं , यह भी भूल जाते हैं .
बधाई .
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 4, 2014 at 1:21pm

बूढी माँ ने किस तरह दिल पर पत्थर रख कर सीख देने के लिए अपनी बाहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा यह उस 

बूढी माँ का दिल ही जानता होगा | इससे मार्मिक रचना और क्या हो सकती है | वाह ! बहुत सुंदर लघु कथा के लिए बहुत

बहुत बधाई श्री योगराज भाई जी  

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 4, 2014 at 11:39am

आ० भाई यागराज जी आपके अनुभव और परखीपन को नमन l यह आत्ममुग्धता आज व्यापक हो गयी है l इसी आत्ममुग्धता का शिकार पिछले हफ्ते मेरे एक मित्र का युवा बेटा हो गया l मैं अक्सर देखता हूँ की अधिकांशतया इस तरह की आत्ममुग्धता को बढ़ावा देने में माता का ही हाथ अधिक रहता है l काश ,इस श्रेष्ठ लघुकथा की तरह हर माँ और पिता भविष्य को देख सकें और अपने बच्चों को आत्ममुग्धता के चक्रव्यूह से निकलने में सफल हो सकें l  इस श्रेष्ठ लगुकथा के लिए अनुज की बधाई स्वीकारें l            

Comment by वेदिका on July 3, 2014 at 11:11pm
आहा! क्या सचेत किया अनुभवी माँ ने!
बहुत बहुत सारी शुभकामनाएं आदरणीय !!

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