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एक ताज़ा नवगीत -----जगदीश पंकज---मैं स्वयं निःशब्द हूँ,


एक ताज़ा नवगीत -----जगदीश पंकज

मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक्क ,विस्मित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी

खुरदरापन ही भरा
जब जिंदगी की
हर सतह पर
फिर कहाँ से खोज
चेहरे पर सजे
लालित्य मेरे
जब अभावों के
तनावों के मिलें
अनगिन थपेड़े
तब किसी अवसाद
के ही चिन्ह
चिपकें नित्य मेरे

मुस्कराते फूल
हंसती ओस
किरणों की चमक से
हैं मुझे प्रिय
किन्तु, हैं अनुताप में
जलते हुए भी

बदलते जब मूल्य
जीवन के,
विवादित आस्थाएं
तब समायोजित करूँ
मैं किस तरह से
इस क्षरण में
देख कर अनदेख
सुनकर अनसुना
क्यों कर रहे हैं
वे ,जिन्हें सच
व्यक्त करना है
समय के व्याकरण में


भव्य पीठासीन,मंचित
जो विमर्शों में
निरापद उक्तियों से
मैं उन्हें कैसे
कहूँ अपना
सतत गलते हुए भी

मैं उठाकर तर्जनी
अपनी, बताना चाहता
संदिग्ध आहट
किस दिशा,किस ओर
खतरा है कहाँ
अपने सगों से
जो हमारे साथ
हम बनकर खड़े
चेहरा बदल कर
और अवसरवाद के
बहरूपियों से ,गिरगिटों से,
या ठगों से

मैं बनाना चाहता हूँ
तीर, शब्दों को
तपाकर
लक्ष्य भेदन के लिए
फौलाद में
ढलते हुए भी

----जगदीश पंकज
------------------------------------------------------------------------------------------

रचना मौलिक ,अप्रकाशित ,अप्रसारित
----जगदीश पंकज

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Comment by rajesh kumari on June 21, 2014 at 10:45am

मैं उठाकर तर्जनी
अपनी, बताना चाहता
संदिग्ध आहट 
किस दिशा,किस ओर 
खतरा है कहाँ 
अपने सगों से 
जो हमारे साथ 
हम बनकर खड़े
चेहरा बदल कर 
और अवसरवाद के 
बहरूपियों से ,गिरगिटों से,
या ठगों से------अतिसुन्दर अतिसुन्दर पंक्तियाँ .....जीवन की यही विषमताएं एक लेखक या कवी की कलम ने आग भारती हैं ,बहुत सुन्दर नवगीत ,बधाई आपको जगदीश पंकज जी 

Comment by Meena Pathak on June 21, 2014 at 8:54am

बहुत सुन्दर नवगीत .. सादर बधाई 

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on June 20, 2014 at 11:02pm

गीत पर अभिमत के लिए हार्दिक आभार आ.  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2014 at 1:26pm

आदरणीय

सुन्दर गीत है i शब्दों को तपाकर जो तीर आप बनाना चाहते है वही कवि की वास्तविक शक्ति है i आपका स्वागत है i

कृपया ध्यान दे...

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