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चीखकर ऊँचे स्वरों में कह रहा हूँ --जगदीश पंकज

चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज
तुम तक आ रही है ?

 

जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर -बहिष्कृत हम
रहें प्रतियोगिता से ,
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है

 

क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है ?

 

मानते हैं हम ,
नहीं सम्भ्रांत ,ना सम्पन्न,
साधनहीन हैं,
अस्तित्व तो है
पर हमारे पास
अपना चमचमाता
निष्कलुष,निष्पाप सा
व्यक्तित्व तो है

 

थपथपाकर पीठ अपनी
मुग्ध हो तुम
आत्मा स्वीकार से
सकुचा रही है

 

जब तिरस्कृत कर रहे
हमको निरन्तर
तब विकल्पों को तलाशें
या नहीं हम
बस तुम्हारी जीत पर
ताली बजाएं
हाथ खाली रख
सजाकर मौन संयम

 

अब नहीं स्वीकार
यह अपमान हमको
चेतना प्रतिकार के
स्वर पा रही है

 

----------------------------------------------------------------------------------
मौलिक एवं अप्रकाशित /अप्रसारित ---जगदीश पंकज

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Comment

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Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 16, 2014 at 9:05pm

प्रिय Saurabh Pandey जी ,आपने बड़ी सूक्ष्मता से मेरे इस नवगीत के साथ-साथ पूरे लेखन पर समीक्षात्मक टिप्पणी देकर जो मान दिया है, उससे अंतरतम की गहराई तक अभिभूत हूँ। आभारी हूँ आपकी सदाशयता के लिए। प्रयास रहेगा आपकी अपेक्षा पर खरा उतरता रहूँ। पुनः ह्रदय तल से धन्यवाद! -जगदीश पंकज  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 15, 2014 at 11:09pm

आदरणीय जगदीश प्रसादजी, अन्य पद्य विधाओं के मठॊं में नवगीतों को लेकर यह सदा से चर्चा का विषय रहा है कि नवगीतों में सामान्य व्यवहार की बातें असहज ढंग से रोप दी जाती हैं और बिम्बों को साधने के क्रम में रचना ही दुरूह हो जाती है. सो, वाचन का प्रवाह तो अपनी जगह, प्रस्तुति की संप्रेषणीयता ही अतुकान्त हो जाती है.

किन्तु, आदरणीय, आपको अबतक पढ़ने के क्रम में मैंने जो खुल कर महसूस किया है वह यही है कि वाचन-प्रवाह के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी अत्यंत सटीक रहती है. आपका पाठक शाब्दिक तौर वह तो प्राप्त करता ही है जो अभिव्यक्त हुआ है, वह भी प्राप्त कर लेता है, जिसे आपका नवगीत भावार्थ की धुंध भरी परिधि के बाहर इंगित कर रहा होता है. यहीं आपके गीत सफल हैं, आदरणीय.
 
प्रस्तुत नवगीत की व्यापकता तो सम्मोहित करती ही है. इसके कथ्य की धारा में जो लावा बहता हुआ है, वह चीख-पुकार मचाने में विश्वास नहीं करता. बल्कि, पुरातन काल से समाज के असंवेदनशील वर्ग के प्रति मुखर ढंग से प्रतिकार करता है. इस प्रतिकार में गलीजपन नहीं है जो इस त्रस्त मन को उस असंवेदनशील समाज से विरासत में मिला है. बल्कि नवगीत से माध्यम से अभिव्यक्त प्रतिकार में तीखापन है जो स्पष्ट है, गंभीर है. हर बन्द मात्र कहता हुआ नहीं, बल्कि बोलता हुआ है.

इस सफल और अनुकरणीय नवगीत के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय.
सादर

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 13, 2014 at 2:26pm

आपकी उत्साहवर्धक पद्यात्मक टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभार ,भाई Kewal Prasad जी !

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 12, 2014 at 10:34pm

"रचना पर स्नेहपूर्ण टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार ,  Santlal Karun जी।"

Comment by Santlal Karun on July 12, 2014 at 8:27pm

आदरणीय जगदीश जी,

आप की सघन-सूक्ष्म संवेदनाओं की लघुकायिक कविताएँ अत्यंत प्रभावी और पठनीय हैं; हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 11, 2014 at 8:33pm
आ0 जगदीश भाईजी,

--बस विकल्पों से मिला है रास्ता जो
पार धरती से गगन तक जा रहा है।
कब निराशा ने कहा तुम चुप रहोगे,
रोशनी से फिर जगी आशा किरन है।.......सुन्दर भावना से ओतप्राेत रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 11, 2014 at 1:13pm

रचना पर आत्मीय टिप्पणी देकर उत्साहवर्द्धन केलिए हार्दिक आभार गिरिराज भंडारी जी 

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 11, 2014 at 1:12pm

रचना पर आत्मीय टिप्पणी देकर उत्साहवर्द्धन केलिए हार्दिक आभार Vijay Prakash Sharma  जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 11:28pm

आदरणीय जगदीश भाई , सतत उपेक्षा झेलने से उपजे आक्रोश को खूबसूरत शब्द मिले हैं। इस उत्तम रचना के लिये आपको बधाइयाँ ।

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 10, 2014 at 11:21pm

बहुत अर्शे बाद किसी विद्रोही कवि का आक्रोश अभिव्यक्ति पा रहा है. बधाई जगदीश जी.

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