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अपने मौसम को ………

अपने मौसम को ………

तुम ही तो थे
मेरे नेत्रों के वातायन से
असमय विरह पीर को
बरसाने वाले

मुझे अपने बाहुपाश में
प्रेम के अलौकिक सुख का
परिचय कराने वाले

मेरी झोली में विरह पलों को डालने वाले
क्या आलिंगन के वो मधुपल भ्रम थे

पर्दे के पीछे मेरी विरह वेदना को
सिसकियों में पिघलते
मूक बन कर देखते रहे

क्यों एक बार भी हाथ बढ़ा कर
मेरे व्यथित हृदय को
ढाढस बंधाने का प्रयास नहीं किया

मैं बिस्तर पर बिखरे वस्त्रों को समेटती रही
तुम्हारी बेतरतीब सी बिखरी किताबों में
तुम्हारे अक्स,तुम्हारे स्पर्श
महसूस करती रही

खाली पडी चाय की प्याली पर
तुम्हारे अधरों की अव्यक्त तृषा के भावों में
स्वयं को समाहित करती रही

मेरे नेत्रों की प्रणय प्रभा
तुम्हारी प्रतीक्षा की कल्पना में
साँझ के आवरण में लुप्त होने लगी

मैं बावली सी
इक बूँद प्यार की आस में
हर पल पाषाण पे मरती रही

अपने काजल से रात्रि को रंगती रही
कल्पना की चुनर से
अपने मयंक को तकती रही
अधर पे अंगार सजते रहे
मैं अपने मौसम को तरसती रही

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on June 7, 2014 at 12:28pm

आदरणीय जितेन्द्र गीत जी रचना पर आपकी स्नेहिल  प्रशंसा का  हार्दिक आभार 

Comment by Sushil Sarna on June 7, 2014 at 12:28pm

आदरणीय शिज्जु शकूर  जी रचना पर आपकी स्नेहिल  प्रशंसा का  हार्दिक आभार 

Comment by Sushil Sarna on June 7, 2014 at 12:23pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा ने रचना को नई ऊंचाई की है   … इस  हेतु आपका हार्दिक आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 7, 2014 at 9:36am

आदरणीय शुशील जी, बहुत ही सुंदर भाव. बहुत बहुत बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 6, 2014 at 7:43pm

वाह खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2014 at 12:00pm

सरना जी

आपके मनोरम श्रृंगार को  प्रणाम i कल्पना की चूनर से ---- वाह ! लाजवाब i

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