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जी चाहता है,
सभ्यता के
पाँच हज़ार साल
और इससे भी ज़्यादा
लड़ाइयों से अटे -पटे
स्वर्णिम इतिहास पे
उड़ेल दूँ स्याही
फिर
चमकते सूरज को
पैरों तले
रौंद कर
मगरमच्छों व
दरियाईघोड़ों से अटे - पटे
गहरे, नीले समुद्र में
नमक का पुतला बन घुल जाऊं
और फिर
हरहराऊँ - सुनामी की तरह
देर तक
दूर तक

मुकेश इलाहाबादी ----

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by MUKESH SRIVASTAVA on June 4, 2014 at 1:41pm

SAURABH JEE - AAPKEE IS SHASHTRIYA AUR EITSAAHIK VYAKHYAA PADH KAR MAN PULKIT HUAA KI CHALO KAM SE KAM IS RACHNAA NE AAPKO ITNAA SOCHNE AUR LIKHNE KE LIYE BAADYA KIYAA - WAAISE BHEE AAP JAANTE HEE HONGE KI KAVITAA KISEE TARK KO LE KE NAHEE CHALTEE HAI BHAAV HEE USKAA PRAAN AUR AATMAA HAI - FIR BEHE AAP SE IN BINDUOON PE FIR SE CHARCHAA HOTEE RAHEGEE - VICHAAR PRASTUTI KE LIYE AABHAAR - AUR SI AALOCHNAA KO EK SAARTHAK AUR POSITIVE ROOP ME LEKAR MAI KHUSH HOO - SHUBHKAAMNAAON SAHEI - MUKESH


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 13, 2014 at 4:15pm

आदरणीय मुकेशजी, आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद

आप कविताओं में विचार-तत्त्व के आग्रही रहे हैं. यह आपकी रचनाधर्मिता को एक आवश्यक कोण देता है इसमें कोई शक नहीं. उस हिसाब से, प्रस्तुत कविता के संदर्भ में कुछ बातें साझा करूँ तो आपकी सदाशयता मुझे मेरी कमियों के साथ स्वीकार करेगी इसकी आश्वस्ति है.

आदरणीय, किसी प्रस्तुति के लिए आवश्यक सोच-विचार के पीछे मात्र अनुभूत भावनायें ही नहीं होतीं जो शब्दों में ढल कर कविता बन जाती हैं. बल्कि स्कूल विशेष के गहन प्रभाव के साथ-साथ  --अथवा उसके बिना भी--  एक वातावरण विशेष से लगातार मिल रही विन्दुवत प्रेरणाएँ भी होती है. कई बार होता है कि इनके कारण प्रस्तुतियाँ आत्मीय भावनाओं की प्रासंगिकताओं के संदर्भ में कुछ विशेष शब्दों या विशिष्ट मुहावरों से आरोपित कौतुक के बावज़ूद चरमराती दीखती हैं.
यह वैचारिक संप्रेषणों का सायास एवं क्लिष्ट पहलू है.

पाँच हज़ार साल का अतीत क्या मात्र निर्मम युद्ध की गाथा है जो साझा किया जा सकता है ? यह कैसा सरलीकरण है ? क्या अन्यान्य जीवित या मृत सभ्यताओं  --यथा मिस्र, रोम, मेसोपोटामिया की सभ्यताएँ--  का बिम्बात्मक इतिहास और उनकी चर्यायें इतनी हावी हैं कि हमें अपने इतिहास को नयी परिभाषा देने की आवश्यकता बनने लगे ?  आक्रमण और आतताइयों का व्यवहार क्या समाज की इकाइयों के अंतर्सम्बन्धों पर इतना हावी हो पाया था कभी ? कभी ? हम किन विचारों के पोषक होते जा रहे हैं ? अपने आप से इतनी घिन क्यों, कि हर बीते पर, अपने पूर्वजों के किये-कराये पर स्याही उड़ेल देने को उद्यत होने लगें ? इतना क्रोध आखिर क्यों ? अनपेक्षित क्रिया-कलापों के असमय उबालों से हम स्वयं के प्रति इतना अवसाद क्यों पाल लें ? है न !

’चमकते सूरज’ का बिम्ब अपना विगत ही है, आदरणीय. यह स्वर्णिम है या नहीं इसके प्रति हम निर्लिप्त हो सकते हैं. परन्तु, इससे ऐसी कोफ़्त क्यों ?
और साहब, जिस बिम्ब ने अपने सतहीपन से परेशान किया है वह समुद्र में ’दरियाई घोड़े’ का है. किस समुद्र में आपने दरियाई घोड़ा देखा है ? यह मिस्र की सभ्यता का लिजलिजा बिम्ब है जो रोम के समानान्तर क्लिष्ट सभ्यता का परिचायक है.
मैं इसके सापेक्ष सीजर, क्लियोपेट्रा, कालीगुला की जुगुप्साकारी अश्लीलता को विस्मृत कर ही नहीं सकता. न उस घिनौनेपन को.. जहाँ धन और शासन के प्रति ललक अश्लीलता की हदें पार करता भाई-बहनों के बीच विवाह के लिए प्रेरित करने लगी थी. क्या हम ऐसी सोच और प्रतिगामिता को भारत के अतीत से जोड़ सकते हैं ? किसी सूरत में ?
फिर सुनामी छोड़िये आदरणीय.. लुबलुबाती-लपलपाती लहर की भी प्रासंगिकता उजड़े दरख़्त की सूखी डाल से ताकते उस ब्रह्मपिशाच की ही होगी जो बिना सार्थक ज़िन्दग़ी को जीये ब्रह्मपिशाच बन गयी है.

विश्वास है, आप सकारात्मक संदर्भों में मेरी व्याख्या को मान देंगे.
पुनः आपकी प्रस्तुति के लिए सादर आभार.
सादर

Comment by Satyanarayan Singh on May 9, 2014 at 3:59pm

उद्विग्न विचारधारा  संजोये  इक  अलग प्रस्तुति   

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on May 2, 2014 at 9:05pm

thnx for so nice comment Prachi jee - but I would like to know Khatarnaak kis lihaaz se hai ( ha ha ha)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2014 at 8:39pm

बहुत ही खतरनाक खयालात है....

इसे ज्यादा क्या कहा जाए आ० मुकेश श्रीवास्तव जी  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 30, 2014 at 11:35am

बहुत सुंदर, एक अलग अंदाज . हार्दिक बधाई आपको

Comment by coontee mukerji on April 30, 2014 at 1:02am

सुंदर रचना के लिये हार्दिक बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 29, 2014 at 5:38pm

लाजवाब कविता , भाई जी बधाई !!

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on April 29, 2014 at 3:50pm

jee bahut bahut shukriaa Ramesh Kumar Chauhaan jee - is hauslaa aafzaaee k liye

Comment by रमेश कुमार चौहान on April 29, 2014 at 2:41pm

सुंदर प्रस्तुति आदरणीय मुकेशजी बधाई

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