वो गंगा की धारा
वो निर्मल किनारा
जहाँ माँ थी लेटी
हमें कुछ न कहती
हमें याद है वो
निर्मल सा चेहरा
अभी कुछ था कहना
अभी कुछ था सुनना
याद आ रहा था
माँ का तराना
जिसे गाया करती थी
माता हमारी ...
उठाया करती
वो गाकर तराना
मगर आज वो लेटी
हमे कुछ न कहती
पानी था निर्मल
वो अश्रु की धारा
रोके न रुकी थी
वो आँखों की धारा
वही था वो सूरज
वही था किनारा
मैंने माँ को देखा
जैसे वो हंसी थी
मगर वो थी लेटी
हमें कुछ न कहती
खत्म हो रहा था
वो सूरज का तेवर
वो चिता का जलाना
वो दिल का पिघलना
जहाँ माँ थी लेटी
बचा कुछ नहीं था
वही था किनारा
वही थी वो धारा
बची बस वो यादें
माँ की पुरानी
जिसे लेकर बैठा
मैं अब भी किनारे ....
मेरी माँ बसी है
मेरे मन के अंदर ....
मुझे याद आ रहा था
माँ का वो तराना ....
उठ जाग मुसाफिर भोर भयी ......
"मौलिक व अप्रकाशित "
Comment
उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार डा0प्राची जी ... ये दर्द था ... जो मैंने उकेरने की कोशिश करी है ... धन्यवाद
बहुत बहुत आभार आ0जितेंद्र गीत जी ...
मर्मस्पर्शी
माँ की पार्थिव देह को समक्ष पाना........... इस अकल्पनीय पीर को मार्मिकता से शब्द मिले हैं
बहुत मर्मस्पर्शी रचना आदरणीय आमोद जी
बहुत बहुत आभार आ0 लक्ष्मण जी ...
अंतिम दर्शन के र्रोप में श्रद्धांजली में सुन्दर भाव पिरोये है | वाह !
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