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'साहेब हमरी किडनी ख़राब है  I  इलाजु चलि रहा है I  उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I  इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I

'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I

' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I  मै कुछ करता हूँ  I" 

माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में  माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I

'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I

'सर,  मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है i मंदबुद्धि है I  उसे पता नहीं है कि यहाँ लखनऊ में कोई कैरियर नहीं है I  साहेब मुझे नॉएडा में ही ----'

मौलिक /अप्रकाशित

(संशोधित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 12, 2013 at 8:59pm

एक ऐसे युवावर्ग का आईना  है ये लघुकथा जिनको माँ बाप की चिंता नहीं अपनी स्वतंत्रता की ज्यादा चिंता है जिन्होंने उनको जन्म दिया इतना बड़ा किया वो ही भारी बोझ हो जाते हैं बच्चों पर कि जिस वक़्त उनको उस सहारे की जरूरत होती है वो बचना चाहते हैं ,कहानी का मर्म संवेदनाएं जगाता है ,बहुत -बहुत बधाई आपको आदरणीय गोपाल श्रीवास्तव जी.  

Comment by annapurna bajpai on December 12, 2013 at 8:19pm

आ० गोपाल नारायण जी बहुत ही अच्छी लघु कथा , हार्दिक बधाई संप्रेषित है । 

Comment by annapurna bajpai on December 12, 2013 at 8:19pm

आ० गोपाल नारायण जी बहुत ही अच्छी लघु कथा , हार्दिक बधाई संप्रेषित है । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 12, 2013 at 5:15pm

अरुण जी

आपकी भावनाओ का सादर सम्मान i

Comment by Arun Sri on December 12, 2013 at 11:37am

एक आइना !

दुबारा देखने का मन नहीं है !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 12, 2013 at 11:11am

गीत जी

आपके विचारो के स्वागत के साथ ही  आपका बहुत बहुत आभार i  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 12, 2013 at 9:52am

आदरणीय डा. गोपाल जी, आपकी शंशोधित लघुकथा को पुन: पढने का अवसर मिला, माँ तो माँ होती है, यहाँ माँ की ढलती उम्र में चाहे वो शिक्षित हो या अनपढ़ , एक असुरक्षित भावनायें घेरे हुए है, अपने बेटे  को सहेज कर रखना चाहती है,  बेटे का अपना प्रक्टिकल अनुभव यह जानता है कि लखनऊ से ज्यादा नोयडा में स्कोप है, किन्तु आज भी कुछ बेटे अपनी स्वतंत्रता को अनुशासन व जिम्मेदारियों की बेड़िया न पहनाते हुए बड़े शहरों में ही रह रहे है, भले ही बड़े शहर में १६०० के १०००  हो रहे हो.

आपकी लघुकथा पर हार्दिक बधाई आदरणीय डा. गोपाल जी

सादर!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2013 at 3:29pm

गीत जी

आपके प्रोत्साहन का आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2013 at 2:50pm

आदरणीय निकोर जी

आपके आशीर्वाद का आभारी हूँ i 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2013 at 2:48pm

आदरणीया कुंती जी
सादर आभार  i

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