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ढूँढती नीड़ अपना

ढूँढती है एक चिड़िया

इस शहर में नीड़ अपना

आज उजड़ा वह बसेरा

जिसमें बुनती रोज सपना

 

छाँव बरगद सी नहीं है

थम गया है पात पीपल

ताल, पोखर, कूप सूना

अब नहीं वह नीर शीतल

 

किरचियाँ चुभती हवा में

टूटता बल, क्षीण पखना

 

कुछ विवश सा राह तकता

आज दिहरी एक दीपक

चरमराती भित्तियाँ हैं

चाटती है नींव दीमक

 

आज पग मायूस, ठिठके

जो फुदकते रोज अँगना

 

भीड़ है हर ओर लेकिन

पथ अपरिचित, साथ छूटा

इस नगर के शोर में अब

नेह का हर बंध टूटा

 

खोजती है एक कोना

फिर बनाये ठौर अपना

 

-  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on November 25, 2013 at 8:29pm

आदरणीय राजेश जी आपका हार्दिक आभार! आपके अनुमोदन से राहत और हिम्मत दोनों प्राप्त हुए.

सादर!

Comment by राजेश 'मृदु' on November 25, 2013 at 2:49pm

जय हो, जय हो, आपकी बारंबार जय हो आदरणीय । बहुत ही शानदार नवगीत लिखा है, और गीतों में हर जगह के शब्‍द जो फिट हों, जरूर लेने चाहिए ऐसा मेरा मत है । देसिल बयना सब जन मिट्ठा-- हम तो यही मानते हैं । चिडि़या को सामने रख आपने जो बात कही है और जिस सुंदरता से कही है उसकी तारीफ किए बगैर नहीं रह सकता । लाजवाब.....लाजवाब....हर बंद लाजवाब, आप यूं ही बेहतरीन लिखते रहे और हमें आनंदित करते रहें, सादर

Comment by बृजेश नीरज on November 24, 2013 at 9:58pm

आदरणीय गोपाल जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 24, 2013 at 9:57pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 24, 2013 at 9:56pm

आदरणीय शिज्जू जी, आपका हार्दिक आभार! 

आपका प्रश्न- मेरा मानना है की ग़ज़ल लिखते समय मात्र गिराने के नियम का पालन करते समय जिस तरह से लोग शब्दों की वर्तनी के साथ छेड़-छड करते हैं, वो नहीं करना चाहिए. आवश्यकता अनुसार हम पढते समय मात्र गिरा सकते हैं बल्कि गिरते ही हैं.

फिलहाल इस चर्चा को यहाँ 'दिहरी' तक ही सीमित रखें, वरना विषयांतर हो जायेगा. इस विषय पर हम कहीं फिर चर्चा करेंगे. मैंने इस शब्द का प्रयोग किया है जो विवाद में है.

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on November 24, 2013 at 9:51pm

 आदरणीय गिरिराज जी, मैंने अपना मत आपके समक्ष रखा है. यहाँ मेरा प्रयास आपको कुछ बताना नहीं रहता. आपसे सदैव चर्चा ही करता हूँ. हो सकता है कि मेरा सोचना गलत ही हो. इस शब्द ने लिखते समय मुझे बहुत तंग किया था. लिखने के बाद भी कर ही रहा है. आप यदि कुछ जानते हैं तो अवश्य बताएं.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 24, 2013 at 3:38pm

नीरज जी

प्रायः  ऐसी कविताओं में लोग  भटक जाते है

और विषयांतर कर  बैठते  है  i

पर कमाल है कि  आदि से लेकर अंत तक

आपका फोकस मुख्य विषय पर  ही रहा  i  बहुत बहुत बधाई हो प्रिय   i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 24, 2013 at 9:13am

भीड़ है हर ओर लेकिन

पथ अपरिचित, साथ छूटा

इस नगर के शोर में अब

नेह का हर बंध टूटा

 

उत्कृष्ट भाव, रचना को पढ़ कर सब कुछ सजीव सा लगता हुआ, हृदय को छू जाती रचना पर बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 24, 2013 at 8:47am

आदरणीय बृजेश जी अपनी इस खूबसूरत भावपूर्ण रचना में आपने शब्दों का बहुत ही खूबसूरती से प्रयोग किया है बहुत बहुत बधाई आपको

//ग़ज़ल के नाम पर हिंदी का गला उर्दू उच्चारण के शोर से रूंधने की कोशिशों का मैं विरोध करता हूँ//

क्षमा कीजिये आपकी ये बात कुछ स्पष्ट नही हुई

सादर,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 24, 2013 at 8:28am

आदरणीय नीरज भाई , शंका का बहुत विस्तार से समाधान करने के लिये आपका आभारी हूँ , देशज शब्दों के विषय मे बताने के लिये आपका अलग से शुक्रिया !!!!

कृपया ध्यान दे...

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