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ग़ज़ल -निलेश 'नूर'- नहीं चलता है वो मुझ को

1222/ 1222/ 1222/ 1222
.
नहीं चलता है वो मुझ को जो कहता है कि चलता है,
यही अंदाज़ दुनियाँ का हमेशा मुझ को खलता है.
***
सलामी उस को मिलती है, चढ़ा जिसका सितारा हो,
मगर चढ़ता हुआ सूरज भी हर इक शाम ढलता है.
***
न तुम कोई खिलौना हो, न मेरा दिल कोई बच्चा,
मगर दिल देख कर तुमको न जाने क्यूँ मचलता है.
***
किनारे है बहुत पक्के, रखा है बांध कर जिन में, 
वगरना आँख में अक्सर कोई दरिया उबलता है.
***
न जाने ढूँढता है क्या मेरी आँखों में वो हरपल,
न जाने कौन सा अरमान उसके दिल में पलता है.
***
जलाओ तुम चिराग़ों को मगर ये याद भी रखना,
चिराग़ों से कभी अपना ही घर आँगन भी जलता है.
***
करें क्या जब मुकद्दर ही बना बैठा है इक मुंसिफ़,
तो हक़ का हर मुक़दमा दिन- महीने -साल टलता है.
***
चले आओ, चले आओ, चले आओ, चले आओ,
चले आओ के देखो ‘नूर’ का अब दम निकलता है.
*******************************************
निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by ram shiromani pathak on October 27, 2013 at 3:31pm

किनारे है बहुत पक्के, रखा है बांध कर जिन में, 
वगरना आँख में अक्सर कोई दरिया उबलता है.
***
न जाने ढूँढता है क्या मेरी आँखों में वो हरपल,
न जाने कौन सा अरमान उसके दिल में पलता है./////वाह वाह क्या कहने  आदरणीय ज़ोरदार ग़ज़ल हार्दिक बधाई आपको //सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 27, 2013 at 2:16pm

आदरणीय नीलेश भाई , लाजवाब , कामयाब गज़ल कही है !!!! आपको तहे दिल से दाद कबूल करें !!!!! मक्ता बेमिसाल लगा !!!!

चले आओ, चले आओ, चले आओ, चले आओ,
चले आओ के देखो ‘नूर’ का अब दम निकलता है. ---- वाह वा !!!!!

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