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इस मंच पर ग़ज़ल कहने का प्रथम प्रयास.. एक तरही ग़ज़ल .."ज़रूरत से ज़ियादा क्यूँ करें हम?"

1222, 1222, 122.
.

ज़रूरत से ज़ियादा क्यूँ करें हम?
लहू दिल से निचोड़ा क्यूँ करें हम?
.

फ़ना हो जाएगा सबकुछ जहां में,
ये झूठा फिर दिखावा क्यूँ करें हम?
.

उगेंगे एक दिन कांटें ही कांटें,
ज़हन में याद बोया क्यूँ करें हम?
.

नहीं परवाह है उनको हमारी,
बिना कारण ही रोया क्यूँ करें हम?
.

हमारे काम खुद ही बोलतें है,
ज़ुबानी कोई दावा क्यूँ करें हम?
.

जुदा है रास्ते तुमसे हमारे,
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम?
.

तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम?? 
.

अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
बता इनको कुरेदा क्यूँ करें हम?? 
.

मिलेगी कौनसी दौलत यहाँ पर,
किसी की क़ब्र खोदा क्यूँ करें हम? 
.

हकीक़त है पता ज़न्नत की हमको,
वहाँ का फिर इरादा क्यूँ करें हम? 
.

चलो अब ‘नूर’ चलते है यहाँ से,
किसी का वक़्त ज़ाया क्यूँ करें हम? 
.
निलेश 'नूर'
मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by अरुन 'अनन्त' on October 14, 2013 at 12:48pm

वाह वाह दमदार ग़ज़ल बेहतरीन अशआर इस मंच पर प्रस्तुत आपकी प्रथम ग़ज़ल दिल को छू गई. इस सुन्दर बेहतरीन ग़ज़ल हेतु दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2013 at 12:00pm

शुक्रिया आदरणीय वीनस केसरी जी. आप की दाद से हौसला बढ़ गया है. और भी बेहतर रचने का प्रयत्न रहेगा. आप का सुझाव sar माथे पर .....
  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 14, 2013 at 7:18am

आदरणीय वीनस भाई आप से क्षमा चाहता हूँ , और नीलेश भाई आपसे भी !!!! 

आपका मिसरा सही है !!!!! मै सोच रहा था जायेगा मे ये बीच मे आ रहा है तो उसकी मात्रा नहे गिरा सकते !!!!

आदरणीय वीनस भाई से पुनः क्षमा चाहता हूँ !!!!

Comment by वीनस केसरी on October 14, 2013 at 1:24am

हमारे काम खुद ही बोलतें है,
ज़ुबानी कोई दावा क्यूँ करें हम? ....... जिंदाबाद
.

जुदा है रास्ते तुमसे हमारे,
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम? ..... शानदार गिरह

तुम्हारे सामने हस्ती नहीं कुछ,
मगर इज्ज़त का सौदा क्यूँ करें हम?? ,,,,,,,,,, बेहद खूबसूरत
.

अभी तो ज़ख्म अपने सब हरे है,
अभी इनको कुरेदा क्यूँ करें हम?? ......... शानदार
.

हकीक़त है पता ज़न्नत की हमको,
वहाँ का फिर इरादा क्यूँ करें हम?  ,,,,,,,,,, वाह वा

बेमिसाल ग़ज़ल के लिए बधाई ,,, अशआर की संख्या सीमित होती तो ग़ज़ल में और कसावट आ जाती


फ़ना हो जा/ एगा सब कुछ / जहां में,
मिसरा बिलकुल दुरुस्त है ... जाएगा में गिर कर लघु हो रहा है जो कि बिलकुल जाइज़
है


Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 13, 2013 at 11:03pm

आदरणीय गिरिराज जी,
अभी नया हूँ इस क्षेत्र में अत: शास्त्र की बारीकियां नहीं समझता हूँ.
वैसे मैंने 'ए' को लघु पढ़ा है. जो लय में पढने पर --फ़ना हो जायगा, सबकुछ जहां में --- ऐसा पढ़ा जा रहा है.
आप के सुझाव पर चिंतन अवश्य करूँगा. 
स्नेह बनाएं रखिये, आप का मार्गदर्शन बेहतर रचने में सहायक होगा.

आभार  
      


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 10:01pm

आदरणीय नीलेश भाई , बहुत शानदार गज़ल कही है आपने , आपको हार्दिक बधाई !!!

फ़ना हो जा/ एगा सबकुछ / जहां में,

1222   / 2222 / 122                   ----------- शायद  मिसरा बेबह्र  हो रहा है , इस मिसरे को फिर से देख ले ,

हर शेर लाजवब कही है आपने , ढेरों दाद कुबूल करें !!!!

कृपया ध्यान दे...

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