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बेमेल बंधन ..................डॉ० प्राची

अविश्वास !

प्रश्नचिन्ह !

उपेक्षा ! तिरस्कार !

के अनथक सिलसिले में घुटता..

बारूद भरी बन्दूक की

दिल दहलाती दहशत में साँसे गिनता..

पारा फाँकने की कसमसाहट में

ज़िंदगी से रिहाई की भीख माँगता..

निशदिन जलता..

अग्निपरीक्षा में,

पर अभिशप्त अगन ! कभी न निखार सकी कुंदन !

इसमें झुलस

बची है केवल राख !

....स्वर्णिम अस्तित्व की राख !

और राख की नीँव पर

कतरा-कतरा ढहता  

राख के घरौंदे सा

बेमेल बंधन ! 

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Comment

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Comment by रविकर on September 13, 2013 at 9:21am

....स्वर्णिम अस्तित्व की राख !--

 बहुत बहुत बधाई आदरणीया ||

Comment by Abhinav Arun on September 13, 2013 at 5:46am

अनुभूतियाँ गहन से गहनतम होती जातीं .....जीवन का गूढ़ ..सामाजिक तिलस्म .... ह्रदय का ज्वार ...और बहाव के साथ ठहराव ...कितना कुछ बखूबी समेटा सृजित किया है आपने आदरणीया ह्रदय से साधुवाद और शुभकामनायें आपको !!

Comment by वेदिका on September 13, 2013 at 2:29am

बेमेल है तो ही तो बंधन है .....मेल होता तो ....

बहुत बहुत शुभकामनायें आदरणीया प्राची दीदी!!

Comment by vijay nikore on September 13, 2013 at 2:19am

बहुत गूढ़ , गंभीर चिंतन से सराबोर, मन को छूती इस रचना के लिए हार्दिक बधाई।

विजय

Comment by Meena Pathak on September 13, 2013 at 1:10am

क्या कहूँ .. मेरे पास कोई शब्द नही है .. निःशब्द हूँ ...

जीवन का श्राप बन जाता है कभी कभी ये बेमेल बंधन ...............इस अनमोल रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० प्राची जी

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 13, 2013 at 12:01am

...स्वर्णिम अस्तित्व की राख !

और राख की नीँव पर

कतरा-कतरा ढहता  

राख के घरौंदे सा

बेमेल बंधन ! ...........बहुत ही गहरे भाव

सुंदर रचना पर बहुत बहुत बधाई आदरणीया डा. प्राची जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2013 at 11:36pm

निःशब्द हूँ.

...................

ख़ैर,

सहअस्तित्व-साहचर्य ही वह तिनका है जो जीवन की मँझधार में दो ध्रुवों के समुच्चय को एकरस होने का निश्चय और निष्ठा देता है.  इस तिनके का अस्तित्व ही पार पाने की आश्वस्ति है. इस आश्वस्ति में तनिक लोच मँझधार की भयावहता को बहुगुणित कर देता है जिसका एक प्रतिफल जीवनधारा में बहुतायत में प्राप्त भँवरों में लगातार उलझना और फिर निश्चित डूबना ही है.

अवश्य प्रतीत होते इस डूब से समुच्चय को बचाती, जीवनधारा में एकसार बहती कोई इकाई अंततः कितना एकाकी जीये ?

इस विवशता को जीती हुई प्रस्तुत कविता के लिए आपको बार-बार नमन.

गहनता को कितना ठोस आधार मिला है, कि भावनाओं की शृंखलाएँ बनती चली गयी हैं. बहुत-बहुत बधाई आदरणीया प्राचीजी.

सादर

Comment by annapurna bajpai on September 12, 2013 at 10:56pm

अग्निपरीक्षा में,

पर अभिशप्त अगन ! कभी न निखार सकी कुंदन !

इसमें झुलस

बची है केवल राख !

....स्वर्णिम अस्तित्व की राख !

और राख की नीँव पर

कतरा-कतरा ढहता  

राख के घरौंदे सा

बेमेल बंधन !  .....................................  सुंदर पंक्तियाँ , बहुत बढ़िया आ0 प्राची जी । इस रचना हेतु बधाई स्वीकारें । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 12, 2013 at 10:19pm

अभिव्यक्ति पर उत्साहवर्धक अनुमोदन के लिए सादर आभार आ० अनुराग जी , आ० सरिता भाटिया जी, आ० गिरिराज भंडारी जी, आ० अखिलेश जी, आ० दिलीप जी, आ० परवीन जी 

Comment by Parveen Malik on September 12, 2013 at 9:48pm
बेहतरीन शब्द संयोजन प्राची जी .... सादर !

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