वन नन्दन था वय षोडश कंचन देह लिए चलती वह बाला
शुचि स्वर्ण समान लगे शुभ केश व चन्द्र प्रभा सम वर्ण निराला
नृप एक वहीं फिरता मृगया हित यौवन देख हुआ मतवाला
वह नेत्र मनोहर मादक थे मदमस्त हुआ न गया मधुशाला
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार जवाहर लाल जी
बहुत आभार लक्ष्मण जी
abhaar akhilesh krishna ji
हिन्दी शब्दों का सुंदर प्रयोग , बधाई आशुतोष भाई।
बहुत सुन्दर रचना पढ़कर ही आ जाए मस्ती मन मुग्ध कर जाती
ऐसे में भुत बधाई भाई श्री आशुतोष जी सुन्दर यह रचना मदमाती
सगण आठ की बताए विद्वजन यह सुन्दर सवैया नयनो की मधुहाला
इससे अधिक न मादक होती फिर क्यों कर कहे कोई उसको मधुशाला |
वाह वाह अति सुन्दर!
आदरणीय आशुतोष जी, आपका बहुत दिनों बाद इस मंच पर आना हुआ है. आपका स्वागत है.
प्रस्तुत छंद रचना में दुष्यंत-शकुन्तला के प्रथम मिलन के प्रथम कुछ क्षणों को शब्दबद्ध कर आपने लालित्य की मानों वर्षा ही कर दी है. शकुन्तला के दैहिक विन्यास को अत्यंत उदार शब्द दिये हैं आपने. वाह ! आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय.
वैसे इस मंच की परंपरा के अनुरूप छंद-रचना के साथ प्रयुक्त छंद के नाम और संक्षिप्त विधान को भी साझा करना आवश्यक होता है. ताकि सीखते हुए पाठक सहज ही छंद-रचना का रसास्वादन कर सकें. आप द्वारा प्रस्तुत यह छंद-रचना सुन्दरी सवैया की सुन्दर बानगी है जो आठ सगण के पश्चात एक गुरु अर्थात् सगण X 8 + गुरु के विधान को संपुष्ट करती है.
सादर
वाह मस्त मस्त क्या दृश्य उकेरा है आदरणीय अप्रितम हृदयस्पर्शी आनंद आ गया बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
वाह आदरणीय आशुतोष जी ,अनुपम शब्द संयोजन //बहुत बहुत बधाई आपको //सादर
आदरणीय बाजपेयी जी , अदभुत रचना , अदभुत शब्द सन्योजन !!! वाह !! बधाई स्वीकार करें !!
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