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घुट-घुट के जीना सीख लिया

रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया,

औरों को खुशियाँ देने को, छुप-छुप के रोना सीख लिया।

 

ताने उलाहने सुन कर हम बने रहे हर बार अंजान,

वो यूं ही सताते रहे हमे समझा न कभी हमे इंसान।

मेरी आंखो के सागर का बूंद-बूंद तक लूट लिया और,

रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया।

 

मेरे मन की गहराई मे अब उलझनों का घेरा हैं

हर रात बीते रुसवाई मे, बेबस हर सवेरा है।

मौसम की कड़ी तपन मे घावों को सीना सीख लिया और

रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया।

 

ठोकर खाकर देखा चारो तरफ हैं स्वार्थ की धुंध,

खामोशी से सहकर सबकुछ आंखे अपनी करली बंद,

मेरा ही मन जाने है क्या-क्या मुझपर बीत गया और

रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया। 

- वसुधा निगम 

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by Dr.Prachi Singh on September 6, 2013 at 2:46pm

एक स्त्री कई बातें अपने अंदर ही समेटे घुटती रहती है.. उस वेदना को प्रस्तुत करती अभिव्यक्ति..

कथ्य यद्यपि प्रभावी है फिर भी व्याकरण और शिल्प काफी समय और चाहता है 

प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

Comment by Vasudha Nigam on September 5, 2013 at 10:08am

आभार आप सभी का, मार्गदर्शन देते रहिएगा, लिखने की प्रेरणा मिलती है।

 आदरणीय राजेश झा जी,

आपका संशय दूर करने का प्रयत्न कर रही हूँ,

1  (रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया) इस रचना के जरिये एक नारी की व्यथा बताने की कोशिश की है,और मेरे अनुसार मर्यादा यदि अभिव्यक्ति का अधिकार न दे तो घुटन बन जाती है। 

2  (मेरी आंखो के सागर का बूंद-बूंद तक लूट लिया) इतना रोये की आँसू सूख गए। 

3  (ठोकर खाकर देखा चारो तरफ हैं स्वार्थ की धुंध) नारी का मासूम मन ठोकर खाकर ही स्वार्थ को समझ पाता हैं। 

ये रचना एक स्त्री की निराशा को व्यक्त कर रही है अतः नकारात्मक है, रचना ने आपको निराश किया क्षमा चाहुंगी।

 

 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 5, 2013 at 3:16am

सुंदर रचना प्रस्तुति पर,हार्दिक बधाई आदरणीया वसुधा जी

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 7:15pm

अच्छा प्रयास है। आपको हार्दिक बधाई!

Comment by राजेश 'मृदु' on September 4, 2013 at 5:45pm

आपकी रचना सुंदर है, कुछ बातों पर संशय है कृपया दूर करने की कृपा करें

1 रिश्तों की मर्यादा में हमने घुट-घुट के जीना सीख लिया - मर्यादा शब्‍द नकारात्‍मक अर्थ में प्रयुक्‍त हुआ सा लगता है क्‍योंकि मर्यादा घुटन नहीं देती

2 मेरी आंखो के सागर का बूंद-बूंद तक लूट लिया - यानि आंसू खत्‍म कर दिए या फिर खुशिया खत्‍म कर दीं इन दोनों में क्‍या यहां भी आंखों का सागर नकारात्‍मक तरीके से इस्‍तेमाल हुआ सा लगता है ।

3 ठोकर खाकर देखा चारो तरफ हैं स्वार्थ की धुंध - स्‍वार्थ की धुंध को देखने के लिए ठोकर खाने की आवश्‍यकता कुछ फिट नहीं बैठ रही

हो सकता है मैं अलग तरीके से सोच रहा हूं, पर आपके विचार इन तीन बिंदुओं पर जानना चाहूंगा, सादर

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 4, 2013 at 5:01pm

 विवशता से ही कविता का जन्म हुआ,  वसुधाजी बधाई॥  हर तीसरी पंक्ति में "और" की आवश्यकता नहीं॥

Comment by रविकर on September 4, 2013 at 4:34pm

औरों को खुशियाँ देने को, छुप-छुप के रोना सीख लिया।
4+2+4+4+2= 16            2+2+2+4+3+3 =16


सुन्दर पंक्तियाँ-
बढ़िया भाव-
शुभकामनायें आदरेया-

अगर सभी में ऐसा हो तो, मजा हमारा दुगुना होवे |
सोलह सोलह गिनती कर लें, लय सुर ताल कभी ना खोवे-
सादर

Comment by vijay nikore on September 4, 2013 at 1:04pm

अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति। बधाई।

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 4, 2013 at 12:21pm
आदरणीय वसुधा जी ,नारी की विवशता का अच्छा चित्रण किया आपने , बधाई !!
Comment by बसंत नेमा on September 4, 2013 at 11:21am

बहुत सुन्दर रचना .. बधाई वसुधा जी 

कृपया ध्यान दे...

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