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फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया

वाह! तरही मुशायरा के इस अंक में क्या ही शानदार, एक से बढ़कर एक गजलें पढने को मिली...आनंद आ गया... सभी गजलकारों को तहेदिल से मुबारकबाद देते हुए मुशायरा के दौरान व्यस्तता की वजह से पोस्ट नहीं हो सकी 'मिसरा ए तरह' पर गजल प्रयास सादर प्रस्तुत...

क्या पता अच्छा या बुरा लाया।

चैन दे, तिश्नगी उठा लाया।

 

जो कहो धोखा तो यही कह लो,

अश्क अजानिब के मैं चुरा लाया।

 

क्यूँ फिजायें धुआँ धुआँ सी हैं,

याँ शरर कौन है छुपा लाया।

 

बाग में या के हों बियाबाँ में,

गुल हों महफूज ये दुआ लाया।

 

लूटा वादा उजालों का करके,

ये बता रोशनी कुजा लाया?

 

मेरा साया मुझी से कहता है,

अक्स ये कैसा बदनुमा लाया।  

 

लो सलाम आखिरी कजा लायी,

फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।

 

हो मेहरबाँ 'हबीब' उसुर मुझपे,                       

इम्तहाँ रोज ही जुदा लाया।

___ मौलिक एवं अप्रकाशित____

सस्वर प्रयास-

सादर

संजय मिश्रा 'हबीब'

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Comment by Saurabh Pandey on June 1, 2013 at 7:20pm

आपका प्रयास अत्यंत व्यवस्थित था, संजय भाई.

काश यह ग़ज़ल आयोजन की माला का एक अमूल्य मनका होती.

आपकी आवाज़ में इसे सुनने का लुत्फ़ और भी बढ़ गया.

ढेर सारी दाद लें. और यों ही अभिसिप्त करते रहें.

शुभ-शुभ

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 30, 2013 at 6:21pm

आपकी आवाज में गजल सुनकर गजल समारोह सा लुफ्त उठाया, सुन्दर गजल और आवाज के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by विजय मिश्र on May 30, 2013 at 1:49pm
"बाग में या के हों बियाबाँ में,

गुल हों महफूज ये दुआ लाया। " -- बहुत प्रभावित करती है . यह दुआ कायम रहे मैं भी यही दुआ लाया .संजयजी ,मुझे रचनाओं की विधा आदि का कोई इल्म नहीं ,मैं तो भाव आधारित प्रसंशा ही करता हूँ , मुझे आपकी यह गज़ल बहुत प्यारी लगी . शुभेच्छा
Comment by Sarita Bhatia on May 29, 2013 at 6:38pm

बहुत बढ़िया संजय जी 

बधाई सस्वर पेश करने के लिए 

Comment by ram shiromani pathak on May 29, 2013 at 3:40pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति हुई है आदरणीय भाई जी ///हार्दिक बधाई

Comment by Abhinav Arun on May 29, 2013 at 9:46am

वाह अभी सुना भी -

क्या पता अच्छा या बुरा लाया।

चैन दे, तिश्नगी उठा लाया।

क्या खूब अंदाज़ है जनाब वाह !!

Comment by Abhinav Arun on May 29, 2013 at 9:44am

बाग में या के हों बियाबाँ में,

गुल हों महफूज ये दुआ लाया।

वाह बहुत खूब ग़ज़ल हुई है हबीब जी शानदार शेर हुए है हार्दिक बधाई !!

Comment by vijay nikore on May 29, 2013 at 2:56am

आदरणीय संजय जी:

 

// क्यूँ फिजायें धुआँ धुआँ सी हैं,

   याँ शरर कौन है छुपा लाया। // ....

 

वाह, वाह, वाह ! क्या ख़्याल है! बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by राज लाली बटाला on May 28, 2013 at 11:20pm

bahut khoob !!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 28, 2013 at 8:52pm

आ0 संजय हबीब जी,  ’ क्यूँ फिजायें धुआँ धुआँ सी हैं,  याँ शरर कौन है छुपा लाया।’  बहुत ही सुन्दर।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

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