For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं

तमाम विसंगतियों के विरोध में एक ताज़ा ग़ज़ल .....


दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं 
फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं 

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का

अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

आरियाँ खुश थीं कि बस दो –चार दिन की बात है 
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं

 

उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में

दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं

 

बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया

साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं

 

है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार

आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

 

यूँ शहादत पर सियासत का नया फैशन दिखा

शोक जतलाने को नीली बत्तियाँ आने लगीं

 

हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ

बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं

 

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़

जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं

 

आज कह के कल मुकर जाने को सब तय्यार हैं

शाइरों में भी सियासी खूबियाँ आने लगीं

 

उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें

और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं  



- वीनस केसरी 
मौलिक व अप्रकाशित 

 

Views: 1367

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:42pm

बसंत नेमा जी आपका ह्रदय से आभारी हूँ 

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:41pm

कवि दीपेन्द्र जी,
ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए आपके पास शब्द नहीं हैं यही तो सबसे बड़ी तारीफ़ है :))))))))

बहुत शुक्रिया 

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:39pm

सुलभ भाई जी, ओबीओ मंच पर आपसे दाद पा कर अभिभूत हूँ 

थोडा सक्रियता बढाईये तो मजा आये ....

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:36pm

सौरभ जी ग़ज़ल को आपका अनुमोदन मुझे भी संतुष्ट करता गया ...

सादर 

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:35pm

श्याम नारायण वर्मा जी आपका हार्दिक आभार 

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:34pm

कल्पना जी 

ग़ज़ल का हर शेर आपको पसंद आया यह मेरे लिए भी खुशी की बात है आपका हार्दिक धन्यवाद 

Comment by वीनस केसरी on May 8, 2013 at 1:33pm

कवि राज बुन्देली जी इस हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by Abhinav Arun on May 8, 2013 at 9:01am

इस ग़ज़ल की प्रशस्ति के अनुकूल शब्द नहीं श्री वीनस जी , ये उस श्रेणी की ग़ज़ल हुई है जिसके लिए कहते है  ..ग़ज़ल के फूल कहाँ रोज़ रोज़ खिलते है ...और जिगर का खून भी चाहिए असर के लिए ...फूल खिले हैं ..और बात दिल से निकल कर पाठक के ह्रदय में मुहावरों सी बैठ जा रही है ... हर शेर अद्भुत ..अप्रतिम ! रोज़मर्रा के बोलचाल में बार बार  उद्धृत किये जाने योग्य !!! उम्दा ...माँ शारदे की कृपा इसी प्रकार आप पर बनी रहे !!! आमीन !!!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 8, 2013 at 8:54am

//दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं 
फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं//  वाह वाह, मतला आपकी ग़ज़ल के मिजाज़ को बयां करता है, मुहब्बत पर, दकियानूसी विचारधाराओं को आपने आड़े हाथ लिया है, बहुत बढ़िया ।  

//किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का

अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं// सही है भाई जब तक पेट नहीं भरता, कुछ नहीं सूझता, बहुत पहले पढ़ा हुआ "गेहूं और गुलाब" याद आ गया । बढ़िया शेर । 

//आरियाँ खुश थीं कि बस दो –चार दिन की बात है 
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं// यह शेर भी बढ़िया है, इन्तजार का फल मीठा न हो सका :-)

 

//उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में

दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं// उला राम पर specified हो गया है, यदि इसको generalized way में कहाँ जाता तो और बढ़िया शेर हो सकता था । 

//बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया

साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं// आय हाय हाय,क्या बात है, बहुत ही उम्दा कहन । 

 

//है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार

आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं// इस सामयिक शेर पर क्या कहना, आँखे नम करने के लिए काफी है । 

 

//यूँ शहादत पर सियासत का नया फैशन दिखा

शोक जतलाने को नीली बत्तियाँ आने लगीं// नीली बत्ती सियासी लोगो के लिए नहीं होती, एक बार गौर करें ।  

 

//हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ

बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं// होता है होता है, सच कहने वालों को गलियों की परवाह नहीं होनी चाहिए, बढ़िया शेर । 

 

//शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़

जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं// वाह वाह, क्या बात है, बहुत ही गहरा तंज है, इस शेर ने कईयों को एक झटके में दबोच लिया है । 

 

//आज कह के कल मुकर जाने को सब तय्यार हैं

शाइरों में भी सियासी खूबियाँ आने लगीं// वायुमंडल ही प्रदूषित है भाई, कुछ तो प्रभाव पड़ेगा ही । बहुत बढ़िया । 

 

//उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें

और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं// किस्सा सुनाना और सुनना दोनों सार्थक हुआ, अच्छा है । 

बहुत ही प्यारी और उम्दा गज़ल्विनस जी, बहुत बहुत बधाई सिकार करें ।  

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on May 8, 2013 at 8:04am

आदरणीय वीनस जी सादर बहुत ही सुन्दर गजल गाने लगो तो गीत सी वाह! और वर्तमान परिदृश्यों को क्या ही खूबसूरती से उठाया है की बस मजा आ गया है 

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़

जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं..........और ये शेर तो विशेष दाद देने का आग्रह कर रहा है. बहुत खूब.

भरपूर दिली दाद कुबुलें.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service