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बचपन में हम कागज की नाव बनाया करते थे
पानी में उसे तैराया करते थे
कागज के हेलिकाप्टर उड़ाया करते थे
रेत के घर बनाया करते थे
निर्जीव गुड्डे- गुड्डियों की शादी रचाया करते थे
तितलियाँ प्यारी लगतीं थीं
वस्तुएं जिज्ञासा पैदा
करतीं थीं
बचपन का उमंग था
हौंसलों में दम था
यह आशंका नहीं थी
कि कागज की नाव डूबती है या नहीं
हेलिकाप्टर उड़ता है या नहीं
रेत का घर टिकता है या नहीं
तितलियाँ सहचर होती हैं या नहीं
ज्यों ज्यों हम बड़े हए
स्कूल कॉलेज में किताबों को पढ़े हुए
ज्ञान का विकास होता गया
हौंसलों का नाश होता गया
जिज्ञासा मृत होती गयी
निर्भीकता की जगह कायरता घर करती गयी
अब हम कुछ भी नया करने से डरते हैं
कोई हौंसला करने में सौ बार सोंचते हैं
आगा- पीछा सब देखते हैं
हानि- लाभ सब परखते हैं
वो अनहोनी में होनी करने की चाहत कहाँ गयी
रात में परियों के आवाज की खनखनाहट कहाँ गयी
क्या हम सचमुच बड़े हो गये
या उम्र- ठग के द्वारा ठगे गये
या हम एक भला आदमी होने से रह गये
या मूढ़ता अज्ञानता की खाई में धंसते चले गये
आखिर हम क्या हो गये?

(रचना पूर्णत: मौलिक व अप्रकाशित है)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 21, 2013 at 2:45am

आदरणीय त्रिपाठी जी, आपने एक महत्त्वपूर्ण और ज्वलंत मुद्दे पर अपनी रचना प्रस्तुत की है. आपकी सोच के लिये बधाई. आप जिस स्तर के रचनाकार हैं उसको ध्यान से उतार नहीं सकता. इसीलिये इन्हीं भावों पर आधारित आपकी कविता से और उत्कृष्ट रस की प्यास  अधूरी रह गयी. सादर.

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