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रफ्तार (चार मुक्तक)

उजाला चाहते हैं वज्म में खुद जलना होगा,
सफर तय करना है तो गिर कर सम्भलना होगा।
इतनी आसानी से मंजिल नहीं मिलती यारों,
जिन्दगी की रफ्तार को कुछ बदलना होगा॥

मंहगाई की रफ्तार यूँ बढ़ती जा रही है,
इसी के इर्द- गिर्द दुनिया सिमटती जा रही है।
तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥

सुना है उसने एक नई कार खरीद ली,
समझता है जिन्दगी में रफ्तार खरीद ली।
पर क्या पता उस नादान अहमक को,
अपने पाले में मुसीबत बेकार खरीद ली॥

जिन्दगी के भी कुछ उसूल होते हैं,
अगर हम उनके माकूल होते हैं।
तो होती है खुशियों की बारिस सदा,
अगरचे हर कदम पर शूल होते हैं॥

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 15, 2013 at 4:03pm

बहुत सुन्दर और सामयिक मुक्तक के लिए बधाई श्री बिन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 15, 2013 at 8:57am

वाह! बढ़िया मुक्तक.

 

Comment by Kedia Chhirag on April 14, 2013 at 7:17pm

बेहद ही सुन्दर एवं सारपूर्ण अभिव्यक्ति ....हार्दिक बधाई भाई ....

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 14, 2013 at 5:22pm

जिन्दगी के भी कुछ उसूल होते हैं,
अगर हम उनके माकूल होते हैं।
तो होती है खुशियों की बारिस सदा,
अगरचे हर कदम पर शूल होते हैं॥

आदरणीय विनय जी 

सत्य है. 

बधाई 

सादर 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2013 at 4:10pm

आ0 विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी, ’तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥...’ अतिसुन्दर। बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by vijay nikore on April 14, 2013 at 1:55pm

//जिन्दगी के भी कुछ उसूल होते हैं,
अगर हम उनके माकूल होते हैं।//

अति सुन्दर। बधाई।

विजय निकोर

Comment by ram shiromani pathak on April 14, 2013 at 1:46pm

मंहगाई की रफ्तार यूँ बढ़ती जा रही है,
इसी के इर्द- गिर्द दुनिया सिमटती जा रही है।
तिस पर ये बेरोजगारी घोटाले और लूट,
ये जिन्दगी इक दलदल में बदलती जा रही है॥

सटीक टिप्पणी भाई //
सुन्दर हार्दिक बधाई

Comment by coontee mukerji on April 14, 2013 at 9:40am

सुना है उसने एक कार खरीद ली

समझता है जिंदगी में रफ्तार खरीद ली .बहुत सुन्दर . सादर कुंती

Comment by बृजेश नीरज on April 13, 2013 at 11:53pm

उसूलों की बात अब यहां समझता कौन है
बेवजह की नुमाइश से भी बचता कौन है
हर कोई भागता दौड़ता नजर आएगा
ठोकरों के बिना आखिर सम्हलता कौन है

विन्ध्येश्वरी भाई इस सुन्दर रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकारें।

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