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हिन्दी गजल...

 

गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

हर पथिक हारा थका, पाता यहाँ विश्राम है,

भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,

मोहिनी,  मृदु-गान  है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

हाँफते विहगों की प्यारी, नीड़ इनकी डालियाँ,

और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर,

सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

जो न साधन जोड़ पाते, वे शरण पाते यहाँ,

दीन का भगवान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,

गूढ यह विज्ञान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

----कल्पना रामानी   

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 16, 2013 at 10:00am

चिलचिलाती धूप में पेड़ के निचे ठंडी हवा का अहसास ही शकुन देते है | साधनों के अभाव में गरीब का तो आसरा होता है |

निम्न पंक्तियों से दिए गए सुन्दर सन्देश के लिए बधाई स्वीकारे आदरणीय कल्पना रामानी जी -

हे मनुष मिटने न दो, जीवन के अनुपम स्रोत को,

तल्खियों का त्राण है, ठंडी हवा हर पेड़ की।

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 16, 2013 at 9:56am

पेड़ों की ठंडी हवा पर इतने प्रेम से लिखी गयी ये गज़ल पढ़ कर मन खुश  हो गया...

पूरी गज़ल बेहद पसंद आयी 

हार्दिक बधाई आ० कल्पना रामानी जी 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 15, 2013 at 11:07pm

नीम, पीपल, हो या वट, रखते हरा संसार को,

भूमि पर वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।....................वाह! बहुत खूब.

आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर गजल प्रस्तुत की है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

 

Comment by coontee mukerji on April 15, 2013 at 10:53pm

कल्पना जी , शेर पढ़ने में जितना मज़ा आ रहा है  सुनने में तो क्या कहने .बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें

Comment by कल्पना रामानी on April 15, 2013 at 9:57pm

सभी सम्मानित मित्रों का मेरी रचना को इतना स्नेह देने के लिए हार्दिक आभार, आ॰ गणेश जी, विनय जी व संदीप जी, यह भूल जल्दबाज़ी में हो गई है, लिखने के एकदम बाद पोस्ट कर दी, संदीप जी का कहना एकदम दुरुस्त है। मैं अभी ठीक कर देती हूँ।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2013 at 9:12pm

आदरणीया कल्पना रमानी जी, क्या कहने इस मुसलसल ग़ज़ल पर, सभी शेर एक से बढ़कर एक, उसपर भी एक लंबी रदिफ़ के साथ पूरी ग़ज़ाल्क़ो निभा ले जाना, क्या बात है, जैसा की संदीप भाई ने भी कही है, एक मिसरा वजन से भटक गया है .....

//रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर//

मेरा सुझाव है कि ...

रुख बदलती है मगर, रूठती नही मुख मोड़कर,

बहुत बहुत बधाई और दाद क़ुबूल करें इस खूबसूरत प्रस्तुति पर |

Comment by vijay nikore on April 15, 2013 at 8:10pm

कल्पना जी,

 

// रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर,

   सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की।//

बहुत ही सुन्दर भाव चुने हैं आपने।

बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 15, 2013 at 8:01pm

आदरणीया कल्पना जी सादर प्रणाम 

इस खूबसूरत सी ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद क़ुबूल फरमाइए 

सादर 

केवल यह पंक्ति प्रवाह से खारिज लग रही है 

\\रुख बदलती है मगर, नहीं रूठती मुख मोड़कर,\\

इसे यदि यूँ कहें 

रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुंह मोड़कर 

तो शायद बात बन जाएगी 

एक बार पुनः इस ग़ज़ल हेतु बधाई हो आपको 

कृपया ध्यान दे...

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