पाषाण सा मैं कठोर हूँ मुझको तरल बनाइये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
मुझे शक है अपने आप पर बिश्वास भी खुद पर नहीं ।
मेरी पकड़ भी कमजोर है हाथों में मेरे बल नहीं ।
मेरी वाहं कस कर थामिए मुझे लक्ष्य तक पहुंचाइये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
मै भटक रहा हूँ इधर उधर भटकन भी जन्म जन्म की है ।
इस पार तो मझधार है उस पार राह सनम की है ।
बन कर मेरे माझी प्रभु उस पार तक ले जाइए ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
कुंठित है मेरा मन प्रभु संसार के प्रहार से ।
घायल है मेरी आत्मा सर्बत्र दुःख की मार से ।
अपनी मधुर मुस्कान से मुझको मधुर बनाइये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
मेरा भार तेरे सर पे है क्यूँ भार अपने सर मै लूं ।
मेरी फ़िक्र कर रहा है तू क्यूँ फ़िक्र मै अपनी करूँ ।
अनजान राहों में हे प्रभु मेरे हमसफ़र बन जाईये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
पाषाण सा मैं कठोर हूँ मुझको तरल बनाइये ।
Comment
पाषाण सा मैं कठोर हूँ मुझको तरल बनाइये ।
मेरे छल कपट को छीन कर मुझको सरल बनाइये ।
आदरणीय मुकेश कुमार जी। बहुत बहुत बधाई सुंदर रचना हेतु।
प्रार्थना से सींची हुई यह रचना अच्छी लगी।
सदमार्ग पर जाने की राह में सुन्दर पंक्तियाँ. हादिक बधाई.
आदरणीय मुकेश कुमार सक्सेना जी!
सरल भावों से गठित सरल प्रार्थना, जिसे समझने के लिए ईश्वर को भी सरलता होगी।
शुभकामनायें
सादर वेदिका
सुन्दर भावों को लिए हुए प्रभु से यह प्रार्थना उन तक जरूर पहुंचेगी।
बढ़िया है आदरणीय-
शुभकामनायें-
कुछ प्रिंटिंग मिस्टेक है-
सुन्दर भाव
रचना एक अर्चना के रूप में कथ्य की द्रष्टि से अच्छी लगी, बधाई स्वीकारे श्री मुकेश कुमार सक्सेना जी, मुझको सरल बनाएइये,
मुझको तरल बनाइये वाह ! पर शेष छल कपट,भटकाव, अपने आप पर विश्वास, मधुर व्यवहार जैसे अलंकार हम्मरे सतत
प्रयास और कर्म पर बहुत कुछ निर्भर करते है | इसके लिए स्वयं का आत्मबल मजबूत करने के हमें आवश्यकता है भाई
श्री मुकेश सक्सेना जी, यह आप भी भली भाँती जानते है |
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