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तुम एक धारा

तुम अविराम हृदय में

गहरे पैठे जाते हो

कैसे रोकूं तुमको कि

जाने क्या कर जाते हो

 

तुमसा दूजा कौन जगत में

जिसका मैं विश्वास करूं

पर तुम हो मेरे मन में

नित हलचल कर जाते हो

 

सावन की बौछारों से

भींज गया ये तन मन

प्रेम की अविरल धारा में

संग बहा ले जाते हो

 

प्रातः की रश्मि जैसा

उज्ज्वल तेरा आह्वाहन

चल देता हूं संग तुम्हारे

जहां जहां ले जाते हो

                 - बृजेश नीरज

 

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Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 11:19pm

आदरणीय सौरभजी,
मैं इस बात से पूरी तरह से आश्वस्त हूं कि मुझे यहां पर्याप्त मार्गदर्शन प्राप्त होगा। मैं इसकी तुलना न किसी अन्य साइट से करता हूं और अपने व्यक्तिगत ब्लाग से। हर जगह की अपनी महत्ता और गरिमा होती है और मैं उस गरिमा का निर्वहन करने वाला व्यक्ति हूं।
मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच हुए चर्चाक्रम को न तो मैं ध्यान रखता हूं और न ही उसका कोई अर्थ निकालने का प्रयास करता हूं।
यह भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं दूसरों का पूरी तरह सम्मान करता हूं और दूसरों से भी अपेक्षा करता हूं। किसी अनावश्यक विवाद को मैं महत्व नहीं देता। इस साइट में जैसा परिवेश है वह मुझे अनुकूल लगा इसीलिए मैं यहां सक्रिय हुआ और मुझे इस बात की खुशी है कि मैं ऐसी पत्रिका का सदस्य हूं।
नया हूं तो सम्भव है कुछ त्रुटि हुई हो जो आपके मनोकूल न हो।
एक बात जरूर स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं किसी विधा में रचना पोस्ट करना तब तक उचित नहीं समझता जब तक उसका मूल मुझें स्पष्ट न हो जाए।
एक बार फिर से अपनी भूल के लिए क्षमा चाहता हूं यदि कोई हुई हो।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 10:48pm

बंधुवर, आपका इस पटल पर हार्दिक स्वागत है.

आप चूँकि इस पटल पर अभी एकदम से नये हैं, अतः आप द्वारा की जा रही कोई प्रक्रिया हमें समझ में आती है. ऐसा किसी भी व्यक्ति से अपेक्षित है जो किसी पटल पर नय-नया आया है और अपनी बात को रखने की तकनीक या तौर तरीके से जानकार नहीं है. परन्तु, आप से यह भी अपेक्षा रहेगी, भाईजी, कि आप यथाशीघ्र पटल पर अपनी रचना पोस्ट करने, या अपनी बात पूछने के क्रम में संयत हो जायँ. प्रस्तुत पटल पर ऐसे सदस्यों और सहयोगियों की पूरी संख्या है जो परस्पर सीखने-सिखाने में विश्वास करते हैं. यह किसी एक ही व्यक्ति का दायित्व नहीं है.

ओबीओ साहित्य के क्षेत्र की एक ई-पत्रिका है, इसकी तुलना अन्यान्य सोशलसाइट या व्यक्तिगत ब्लॉग्स से मत कीजियेगा. 

उदारता, परस्पर आदर एवं उचित सम्मान को इस मंच पर एक प्रारंभ से मान्यता दी गयी है. तथ्यात्मक किन्तु नितांत वैयक्तिक बातचीत के क्रम में या अनावश्यक भ्रम के कारण हो गये कुछ असहजपन को सहसा देख कर आप अपने मन में अन्यथा निर्णय कत्तई न बना लें. सर्वोपरि,  अपनी सदस्यता का उद्येश्य स्पष्ट रखें.  जिसका अन्वर्थ मेरी समझ से यही है कि आपने सद्साहित्य से अपना मनस-रंजन और काव्य के लिहाज से अपनी समझ बढ़ाने के लिए सदस्यता प्राप्त की है.

पुनः, यह पटल आपकी नई रचनाओं की प्रतीक्षा में है.

शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 8:36pm

आदरणीय सौरभ जी,
आपके मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद व आभार! आपने मुझे समय दिया इससे मेरा साहस निश्चित रूप से बढ़ा। आपके निर्देशों का भविष्य में मेरे द्वारा पालन होगा।
आपकी बात सत्य है कि सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है लेकिन यह सीखना तब महत्वपूर्ण होता है।
आपकी बात सत्य है कि मैंने एक दोहा और एक चैपाई छन्द प्रयोग के तौर लिखे थे और उन पर जानकारों का मार्गदर्शन चाहा था परन्तु वे पोस्ट मैंने उसी मंच पर किये थे जहां उसकी कक्षा चल रही थी। कारण कि मात्रा गणना से पूर्णतया संतुष्ट होना चाहता था कि मेरी गणना सही है अथवा नहीं। यूं ही मात्रा गणना में परिपक्व हुए बिना कोई पोस्ट करना मुझे उपयुक्त नहीं लगा।
एक बात और कि सलिल जी की पोस्ट पर जो चर्चा चल रही थी उससे मुझे ज्ञात हुआ कि आदरणीय सलिल जी ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया है परन्तु वह कहां दिया यह मुझे ढूंढे नहीं मिला। उससे भी मुझे ज्ञात हुआ कि आदरणीय सलिल जी ने मेरी मात्रा गणना को गलत ठहराया था इसलिए मेरे लिए यह आवश्यक हो गया कि मात्रा गणना में मेरे लिए रचना पोस्ट करने से पूर्व पूर्णतया संतुष्ट हो जाना ही उचित होगा।
मेरी इस हरकत से किसी को यदि कोई कष्ट पहुंचा या ओ बी ओ के किसी नियम का उल्लंघन हुआ तो क्षमा चाहूंगा।
शिल्प के क्षेत्र में आपने जो सुझाव दिए हैं उनका भविष्य में ध्यान रखूंगा।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 7:48pm

//आपको रचना की कुछ पंक्तियां पसन्द आयीं लगा कि लिखना कुछ सार्थक हुआ।//

भाई बृजेशजी, आपने मेरे कहे को मान दिया यह मेरे लिए भी संतोष की बात है.

आपने मेरी टिप्पणी से क्या यही अनुमान लगाया कि आपकी रचना से मुझे मात्र ’कुछ’ पंक्तियाँ पसंद आयीं !? हमने आपकी टिप्पणी के भावानुरूप आपकी रचना से कुछ पंक्तियों को उद्धृत किया है,  भाईजी.  न कि मात्र उन पंक्तियों को पसंद किया है.

पुनः एकभाव-रचना के लिए साधुवाद.

शुभेच्छाएँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 7:37pm

भाई बृजेशजी,  .. .

//हो सकता है कि शिल्प की दृष्टि से कुछ दोष हो। यदि कुछ मार्गदर्शन कर सकें तो अपने को धन्य समझूंगा//

बृजेश जी, एक तथ्य हम अवश्य समझें कि शिल्पगत विन्यास हर तरह की रचना का होता है. छंदबद्ध रचनाओं का शिल्प और विधान है तो  छंदमुक्त रचनाओं का सुगढ़ गठन भी होता है ताकि अंतर्निहित वैचारिकता मुखर हो कर सम्प्रेषित हो सके. गीतों में मात्राओं का संयम होता है तो नवगीतों के बिम्बों के चयन और आंचलिकता सुन्दर समायोजन उसके शिल्प का ही भाग है.

आप सतत प्रयासरत रहें. संयमित एवं गंभीर प्रयास पर आपको उपयुक्त टिप्पणियाँ मिलेंगी जो आपके लिए अत्यंत आवश्यक होंगी. यही इस मंच पर ’सीखने-सिखाने’ का तरीका है. अध्ययन हेतु कई समूह हैं जहाँ आवश्यक जानकारियाँ उपलब्ध है.भविष्य में और भी तथ्य और आलेख अपलोड किये जाते रहेंगे.

//मैं नई कविता का अभ्यस्त हूं //

आपकी ऐसी रचनाओं का भी स्वागत है, भाईजी. आप इसी मंच पर रचनाकारों की रचनाएँ देखिये और आनन्द व जानकारी प्राप्त कीजिये. उनपर अपनी विवेचनापूर्ण टिप्पणी कीजिये कि आपको क्या अच्छा लगा, उनमें कहाँ सुधार हो सकता है, क्या सुधार हो सकता है. लेकिन इन सुझावों के पीछे सुदृढ़ तथ्य और सम्यक विचार हो.

//इन नई विधाओं को आजमाने का जोखिम आप लोगों की संगत में ही उठाना शुरू किया है इस आशा और विश्वास के साथ कि आप लोग मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। मैं बार बार कहता हूं कि शायद आप लोगों की संगत में मेरी लेखनी से कुछ सार्थक निकल सके।//

जोखिम जैसे शब्दों का प्रयोग सीखने और जानकारी प्राप्त करने के क्रम में न करें, बृजेशभाई.

यह तो सुखद अवसर और सुखद संयोग ही है कि हम सभी एक मंच पर इकट्ठे हैं और समवेत सीख रहे हैं. सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है. 

लेकिन सीखने-जानने का एक व्यवस्थित तरीका होना चाहिये, यह तो,  भाईजी, आप भी मानेंगे. आप जिस विधा को पढते हैं और उसपर आवश्यक अभ्यास करते हैं उस विधा में संयत रचनाकर्म करें और उसे अपलोड करें.

आप देखियेगा,  आपकी रचना के स्तर के अनुसार उस रचना को मार्गदर्शन सदृश टिप्पणियाँ मिलने लगेंगी. अब एक छंद को यहाँ दूसरे छंद को वहाँ या इधर-उधर प्रस्तुत कर देने से और यह पूछने से कि बताइये इसमें क्या गलती है, कोई क्या बतायेगा ? सर्वोपरि, कोई क्यों बतायेगा ?

हर रचनाकार की रचना के पोस्ट या आलेख के पोस्ट की अपनी गरिमा और उसका अपना विशिष्ट अधिकार-क्षेत्र होता है. उसकी प्रतिष्ठा क्या हम नहीं रखें ? ऐसा न करने से चल रही किसी चर्चा में अनावश्यक व्यवधान तो होगा ही, आपकी जिज्ञासा को भी उचित मान नहीं मिलेगा.

भाईजी,  आप जिस छंद पर अध्ययन कर लेते हैं, उसमें रचनाकर्म करें और यदि दोहे हैं तो चार-पाँच दोहे, कुण्डलिआ है तो एक-दो कुण्डलिया या चौपायी छंद है तो आठ दस चौपाइयाँ या ऐसा ही कुछ पोस्ट ीजिये. देखिये आवश्यक सुझाव या अनुमोदन मिलता है या नहीं.    

हम सभी इसी विधि से सीखते हैं या सीखते रहें हैं. विश्वास है, मेरा सुझाव आपको भी सम्यक लगेगा.

शुभेच्छाएँ.. .

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 5:29pm

आपका आभार किशन जी!

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 4:47pm

लक्ष्मण जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 4:45pm

सर्वप्रथम आदरणीय सौरभ जी आपका आभार। आपको रचना की कुछ पंक्तियां पसन्द आयीं लगा कि लिखना कुछ सार्थक हुआ।
आपका सुझाया संशोधन तुरन्त स्वीकार करता हूं।
दूसरी बात हो सकता है कि शिल्प की दृष्टि से कुछ दोष हो। यदि कुछ मार्गदर्शन कर सकें तो अपने को धन्य समझूंगा।
मैं नई कविता का अभ्यस्त हूं। इन नई विधाओं को आजमाने का जोखिम आप लोगों की संगत में ही उठाना शुरू किया है इस आशा और विश्वास के साथ कि आप लोग मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। मैं बार बार कहता हूं कि शायद आप लोगों की संगत में मेरी लेखनी से कुछ सार्थक निकल सके।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 2, 2013 at 11:53am

प्रेमपगा निश्छल हृदय-भाव ही पारस्परिक सौहार्द का मूल है  जो आम जन से लेकर कवि-हृदय मनस तक को निस्स्वार्थ समर्पण के लिए सुप्रेरित करता है. तभी तो, इन पंक्तियों का कवि कह उठता है - तुमसा दूजा कौन जगत में / जिसका मैं विश्वास करूं

यह तो सुदृढ़ विश्वास और अदम्य समर्पण की ही पराकाष्ठा हुआ करती है कि सारे भौतिक-अभौतिक तथ्य हाशिये पर चलते चले जाते हैं और कोई मुग्ध-भाव किसी का एकनिष्ठ हो जाता है - प्रातः की रश्मि जैसा / उज्ज्वल तेरा आह्वाहन / चल देता हूं संग तुम्हारे / जहां जहां ले जाते हो

इस कोमल भाव-रचना केलिए भाई बृजेश जी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ. 

एक बात : आह्वाहन  के स्थान पर आवाहन रखते तो संभवतः अधिक उचित होता. और, शिल्प के आलोक में भी रचनाओं प्रतिष्ठित करने का प्रयास करना आपके लिए भी अत्यंत तोषदायी होगा. वैसे यह मेरी समझ भर है जो किसी के लिए बाध्यता कत्तई नहीं है.

शुभ-शुभ

 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 2, 2013 at 11:05am

सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री ब्रजेश नीरज जी, आपने सही कहा है, प्रेम नाम है विश्वास का, प्रेम में निश्छलता है, प्रेम वही जो मन को आल्हादित करे दे |

कृपया ध्यान दे...

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