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कविता कराह रही है

गली के नुक्कड़ पर पड़ी हुई

 

तेज रफ्तार जिंदगी

रौंदकर चली गयी उसे

 

स्वार्थ और वासना के वस्त्रों पर

प्रेम की ओढ़नी ओढ़े

समाज तमाशबीन खड़ा है

 

कोई पुरसाहाल नहीं

 

मुक्तिबोध कहीं धूल फांक रहे

त्रिलोचन रहे नहीं

निराला का तो कंकाल भी नहीं बचा

 

कौन दे सहारा उसे

 

बैसाखियों पर कविता चलती नहीं

 

तो क्या दम तोड़ देगी

वहीं पड़े-पड़े?

                    - बृजेश नीरज

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on March 13, 2013 at 9:30pm

आदरणीया वेदिका जी,
आपने मेरे दिल की बात कह दी। इतना ही नहीं अन्य साइट पर ऐसे लोग बहुत सम्मानित साहित्यकार माने जा रहे हैं और देखकर ऐसा लगता है कि अब साहित्य का सारा भविष्य उन्हें के भरोसे है।
ओ बी ओ में आकर राहत महसूस होती है।
यहां कूड़ा करकट पर जिस तरह नियंत्रण है वह सराहनीय है।
लिखते समय कुछ सार्थक ही लिखा जाए यही उचित भी है और रचनाकार के लिए सफलता का मार्ग भी।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on March 13, 2013 at 9:25pm

आदरणीय स्वर्ण जी,
आपका आभार!
वैसे मैं तो साहित्य के महासंसार में अभी तिनका भी नहीं हूं। ये हम सब का दायित्व है कि कविता की इस कराह को समाप्त किया जाए। ओ बी ओ का इस क्षेत्र में जो प्रयास चल रहा है वह सराहनीय है।
सादर!

Comment by वेदिका on March 13, 2013 at 9:08pm

बहुत अच्छी वेदना उकेरी आदरणीय बृजेश कुमार नीरज जी! धन्यवाद।

मुक्तिबोध कहीं धूल फांक रहे

त्रिलोचन रहे नहीं

निराला का तो कंकाल भी नहीं बचा

अगर दूसरी सोशल साईट के सन्दर्भ में देखा जाये तो तथाकथित कवि, कविता के नाम पर न जाने क्या क्या परोस कर वाह वाही भी जुटा  लेते  है न जाने कैसे जबकि उनकी रचनाएँ देख कर वाकई में रचना कराह उठें।

आशा है दम तोड़ने के पहले

गली के नुक्कड़ पर पड़ी हुई

सच्चे रचनाकारों से उसे नवजीवन मिले। शुभकामनायें

सादर वेदिका 

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 13, 2013 at 8:44pm

शायद नहीं  बृजेश नीरज के होते 

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2013 at 6:11pm

आदरणीय अजय जी, लक्ष्मण जी, राजेन्द्र जी तथा आदरणीया  मीना जी उत्साहवर्धन के लिए आप सबका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2013 at 6:04pm

आदरणीया प्राची जी 

आपको रचना पसन्द आई लिखना सार्थक हुआ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 1, 2013 at 4:57pm

काव्य विधाओं की गुणवत्ता के गिरते जाने पर अच्छी वेदना व्यक्त की है आदरणीय

तेज रफ़्तार ज़िंदगी.

रौंद कर चली गयी उसे,

काव्य रचना के लिए जितना वक़्त और परिश्रम चाहिए वो आज की तेज रफ़्तार ज़िंदगी में कहाँ,

प्रेम की ओढ़नी ओढे 

समाज तमाशबीन खड़ा है,

यही जागरूकता तो चाहिए, कि काव्य और साहित्य के होते ह्रास को देखकर भी अनदेखा नहीं करना है..

न ही अपने स्वार्थ और वाहवाही की वासना में ग्रस्त होना है....

बैसाखियों कर कविता नहीं चलती..... बिलकुल ठीक कहा, आज काव्य को बैसाखियों से उठा सुदृढ़ आधार पर खडा करना है 

इस साहित्य के हित में चिंतन करती अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद आदरणीय बृजेश कुमार जी 

Comment by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on March 1, 2013 at 2:18pm

सुन्दर अभिव्यक्ति 

Comment by Meena Pathak on March 1, 2013 at 1:51pm

बधाई इस सुन्दर कविता के लिए 

Comment by Dr.Ajay Khare on March 1, 2013 at 11:04am

bhavnao ka khatm hota mahatv badhai sunder rachna ke liye

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