एक प्रयोग “चौपाई-त्रिभंगी” गीत
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण किशोरी
कैसे करूँ कल्पना कोरी, होय नहीं समता भी थोरी
अधरों में रस भर, लाज शर्म धर, नैन झुकाए, मुस्काती
सकुचाती काया, लगती माया, दूर खड़ी हो, इठलाती
मन आह भरे है, चाह करे है, चंचल मन अस, उकसाती
हर रात जगे हम, भर भर कर दम, चैन नहीं है, दिन राती
अंतर्मन की जोरा जोरी, कहूँ दशा क्या तुमसे गोरी
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण किशोरी
है प्रेम भरा मन, पुलकित योवन, नित अमृत सा, बरसाती
दृग गहरे काले, कर मतवाले, मद मदिरा सा, छलकाती
यूँ हँसती प्यारी, जग से न्यारी, पागल मन को, कर जाती
पुष्पित तन कोमल, देखूं पल पल, घडी नहीं वो, बिसराती
बात सुनो अब गोरी मोरी, जिस घर तुम वो होय तिजोरी
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण किशोरी
मन बोल न पाता, है सकुचाता, कितना तुमसे, प्रेम करूँ
तुम रूठ न जाओ, दूर न जाओ, सोच सोच ये, बात डरूं
क्या तुम समझोगी, जान सकोगी, मेरे प्रेमी, इस मन को
जो मन आवारा, हो बेचारा , छोड़ चुका है इस तन को
मन ने बाँधी मन से डोरी, मिलो कभी तो चोरी चोरी
दृग सरिता मुख चन्द्र चकोरी, केश मेघ तन स्वर्ण किशोरी
संदीप पटेल “दीप”
Comment
आदरणीया डॉ प्राची जी, आदरणीया राजेश कुमारी जी, सादर प्रणाम
रचना के इस प्रयास को सराहने के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद
स्नेह अनुज पर यूँ ही बनाए रखिए
सादर आभार आपका
दुबारा पढ़ी ये रचना उतना ही मजा आया बहुत सुंदर चमत्कृत करता प्रयास हार्दिक बधाई
प्रिय संदीप जी ,
बहुत सुन्दर मुग्धकारी प्रयास हुआ है चौपाई और त्रिभंगी छंद के फ्यूज़न गीत का..
ऐसे नए प्रयोगों को पढ़ वास्तविक रूप में साहित्य के आकाश की वृहदता का आभास होता है.
सादर.
आदरणीय अशोक सर जी , आदरणीय विजय सर जी , आदरणीय लक्षमण सर जी, आदरणीय अरुण सर जी , आदरणीया आरती जी , आदरणीय भाई राम जी , परम आदरणीय गुरदेव सौरभ सर जी , सादर प्रणाम
इस प्रयोग को सराहने के लिए आप सभी का ह्रदय से आभारी हूँ
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये अनुज पर
आदरणीय गुरुदेव
आपने सच कहा है
शायद प्रयोग को जल्दी पूरा करने की चेष्ठा में आतुर हो जाता हूँ ..................किन्तु अब से आपको शायद शिकायत का कम कम से अवसर दूं गुरुदेव
मुझ पर ये स्नेह और आशीष यूँ ही बनाये रखिये
छंद-समुच्चय में रचित पंक्तियाँ निहार के बाद पुलकित मनोदशा का सुन्दर वर्णन कर रही हैं.
मन बोल न पाता, है सकुचाता, कितना तुमसे, प्रेम करूँ
तुम रूठ न जाओ, दूर न जाओ, सोच सोच ये, बात डरूं.. वाह !
कुछ भाव पंक्तियाँ सांस्कृतिक काव्य में उचित प्रतीत नहीं होतीं. प्रतीत होता है कि आपने उन्हें प्रयोग के तौर पर लिया है.
यथा, बात सुनो अब गोरी मोरी, जिस घर तुम वो होय तिजोरी यह पंक्ति सुन्दर भाव-प्रवाह में झटके की तरह लगी है.
शिल्प की दृष्टि से रचना उत्तम है.
हृदय से बधाई स्वीकार करें.
बहुत खूब संदीप जी ..बधाई स्वीकारें
बहुत खूब संदीप जी ..बधाई स्वीकारें
वाह संदीप जी छंद सुन्दर और भाव पूर्ण बने हैं हार्दिक बधाई आपको !!
मन मोहित हो गया, अति सुन्दर छंद त्रिभंगी, हार्दिक अबाहर स्वीकारे भाई श्सरी संदीप कुमार पटेल जी
आदरणीय संदीप जी:
“चौपाई-त्रिभंगी” .. बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर।
बधाई।
विजय निकोर
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