"बसंत"
मैंने देखा है
आज दीवार के पीछे से
*ढूंक रहा था
कहीं कोई देख न ले
उसको ऐसे नग्न
इस बार प्रेम की
तेज हवाएं
उतार के ले गयीं
उसके पीले वस्त्र
और
बदले में दे गयीं थी
कुछ ताज़ा गुलाब
जिनकी पंखुड़ी पंखुड़ी
गलियारे में बिखरी थी
बेचारा बसंत
शर्मिंदा था
अपनी नादानी पे ..........दीप...........
*ढूंकना = चोरी चोरी नज़र बचा के झांकना
Comment
देशी पर छाई विदेशी को बेनकाब करती सुन्दर रचना आदरणीय संदीप जी सादर बधाई स्वीकारें.
सराहनीय रचना | सादर
आदरणीय गणेश बागी सर जी, आदरणीय लक्षमण सर जी सादर प्रणाम
रचना कर्म को सरहाने और उत्साह बढ़ाने हेतु आपका बहुत बहुत आभारी हूँ
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
बिम्बों और प्रतीकों का बढ़िया प्रयोग हुआ है भाई जी, रचना इशारों इशारों में बहुत बड़ी बात कह जाती है, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपने जो इन पंक्तियों की विवेचना की है मैं तो मुग्ध हो के
बार बार वही पढ़ रहा हूँ
आपकी ये प्रतिक्रिया मेरे मनोबल को बहुत उंचाई में जा रही है
ऐसा लग रहा है
किसी साधक को उसका फल मिल गया हो
ये स्नेह और आशीर्वाद यूँ ही बनाये रखिये गुरुदेव
आपका आभारी हूँ
भाई संदीप जी, आपने कैशोर्य मनोभावों के अति संवेनशील पहलू को बड़े ही संयत ढंग से प्रस्तुत किया है.
वस्त्र-बंधन.. जिज्ञासू मन की उद्विग्न उन्मुक्तता में पहली बाधा.. ओह्होह ! उस वयस को वर्जनाहीनता का बोध नहीं, किंतु उत्फुल्लता को संपूर्णता में जी लेने का निर्दोष हठ.. . ! .. तभी चेतना को हुआ भौतिक-आभास.. कि, संकोच एवं लज्जा के बलात् व्यापते जाने का अद्भुत अनुभव.. भौतिक संज्ञा काठ ! .. वाह-वाह ! सबकुछ बहुत ही सुन्दरता से अभिव्यक्त हुआ है. दिल जीत लिया, भाई तुमने ! ग़ज़ब किया है, भाई.. ग़ज़ब !
बसंत को इतना भावप्रद मान देने के लिए ढेरम्ढेर बधाइयाँ.
//ढूंकना हमारे यहाँ का एक देशज शब्द है जिसका मतलब चोरी चोरी नज़र बचा के झांकना//
तब तो यह शब्द नितांत क्षेत्रीय हुआ. इसका अर्थ या निहितार्थ दे देना था. अब आपकी रचना को पुनः पढ़ता हूँ.
बसंत की नादानी का यह चित्रण,जिसमे नग्न छोटे बच्चे के सामने किसी के आते ही वह अपने जिस अंग को दोनों हाथो से ढकने की कौशिश करता है, के सामान है । सुन्दर रचना, बधाई संदीप भाई
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