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"ग़ज़ल" बह्रे - मुतकारिब मुसम्मन् महजूफ

========ग़ज़ल=========

बह्रे - मुतकारिब मुसम्मन् महजूफ
वजन- १ २ २ - १ २ २ -१ २ २ - १ २

मुहब्बत है तो फिर जताओ जरा
ये पर्दा हया का उठाओ जरा

अजी मुस्कुराते हो क्यूँ आह भर
है क्या राज दिल में बताओ जरा

लबों पे गुलों सी हसीं चोट दे
सनम को कभी आजमाओ जरा

है वीरान तुम बिन गुलिस्ताँ मेरा
हँसो फूल बन खिल-खिलाओ जरा 

हुई आज फीकी मेरी जिन्दगी
नए रंग आकर चढाओ जरा

ये हर्फे-मुहब्बत कहे हैं सुनो
ग़ज़ल की तरह गुनगुनाओ जरा

हमें दूर से ही न तरसाओ यूँ
कभी पास आकर सताओ जरा

तेरे नर्म हाथों से बिखरा है गुल
ये जुल्फों में फिर से सजाओ जरा  

पिघल जाए बर्फाब सा मेरा दिल
गले से हमें यूँ लगाओ ज़रा

है तुम बिन अँधेरे मेरे रात दिन
कोई "दीप" आकर जलाओ जरा


संदीप पटेल "दीप"

संदीप पटेल "दीप"
सिहोरा, जबलपुर (म.प्र.)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 11:02am

रिवायती रंगत में मलबूस यह ग़ज़ल प्रभावित कर गई भाई संदीप पटेल जी, ढेरों ढेर बधाई.

Comment by MARKAND DAVE. on October 12, 2012 at 9:17am

लबों पे गुलों सी हसीं चोट दे 
सनम को कभी आजमाओ जरा|

 

Very Nice Shri Patel sahab,

Comment by AVINASH S BAGDE on October 11, 2012 at 11:52pm

बहुत खूब संदीप जी मुहब्बत है तो फिर जताओ जरा 
                              ये पर्दा हया का उठाओ जरा ...umda..बधाई

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 11, 2012 at 11:04am

आदरणीय नादिर साहब, आदरणीय हसरत साहब , आदरणीय वीनस सर जी , आदरणीय गुरुवर सौरभ सर जी, आदरणीया राजेश कुमारी जी
आप सभी को सादर प्रणाम सहित बहुत बहुत  धन्यवाद जो आपने नाचीज की ग़ज़ल को न केवल वक़्त दिया बल्कि हौसलाफजाई भी की
अपना ये स्नेह अनुज पर यों ही बनाये रखिये सादर आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 11, 2012 at 10:15am

वाह वाह वाह क्या रंगीली  मखमली ग़ज़ल लिखी है अति सुन्दर ये अंदाज़ बनाए रखिये यही वक़्त है तुम्हारा गोड ब्लेस


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 11, 2012 at 2:15am

भाई, कमाल ! किसकी बात करूँ ? छोटी-छोटी बातें कहन को क्या से क्या बना देती हैं !

इन अश’आर पर ढेर सारी दाद लीजिये -

लबों पे गुलों सी हसीं चोट दे
सनम को कभी आजमाओ जरा ..
ये हर्फे-मुहब्बत कहे हैं सुनो
ग़ज़ल की तरह गुनगुनाओ जरा ...
हमें दूर से ही न तरसाओ यूँ
कभी पास आकर सताओ जरा ....

इन शेरों में ग़ज़ब की कसमसाहट बयां हुई है. इस चुहल को बचाये रखना.. .  

मक्ता में तख़ल्लुस का बढिया प्रयोग हुआ है.  लेकिन उला में है  की जगह हैं होना चाहिये न, भाई ? 

खैर, यह सब तो मेरी ओर से चलता ही रहेगा.. .  बधाई-बधाई-बधाई !!

Comment by वीनस केसरी on October 11, 2012 at 1:19am

बहुत खूब संदीप जी एक और आपने अपने 'दीवान' में एक और हीरा जड़ दिया

Comment by SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" on October 10, 2012 at 11:13pm

bahut khoob deep nji kya ghazal kahi he bahut bahut mubarak ho

Comment by नादिर ख़ान on October 10, 2012 at 6:55pm

वाह दीप जी पर्फेक्ट गज़ल है, मज़ा आ गया पढ़कर ।

पर हमारा तो ये आलम है कि

पसीना निकाले है बह्र और वज़न

कभी हमें भी इनसे मिलाओ ज़रा 

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