1222/122
1
हुआ वो ही ख़फ़ा है
किया जिसका भला है
2
ज़माने को पता है
तू मेरा आश्ना है
3
बसर करना जहाँ में
हुआ दुश्वार सा है
4
ख़यालों का समंदर
किनारा ढूँढता है
5
जफ़ाओं का ये तुहफ़ा
किसी की बद-दुआ है
6
बिना उल्फ़त के जीना
कसम से इक क़ज़ा है
7
मेरी ईमानदारी
प हर कोई हँसा है
8
ज़बाँ की तल्ख़ियाँ ही
बढ़ातीं फ़ासला है
9
है ख़ुशक़िस्मत वो 'निर्मल'
जिसे मिलती दुआ है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर सर् , मैं भी इसी शे'र को ठीक करना चाहती थी ।पर,हुआ नहीं। आपने बहुत अच्छा कर दिया।
बेहद शुक्रिय:।
'घटाया कब उन्होंने
बढ़ाकर फ़ासला है'
यूँ कहें:-
'ज़बाँ की तल्ख़ियों ने
बढ़ाया फ़ासला है'
आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी सही कहा आपने। सुधरने की कोशिश कर रही हूँ।
आदरणीय समर कबीर सर् नमस्कार। सर् फेयर में सुधार कर लेती हूँ।यहाँ एडिट करने से पोस्ट पैंडिंग में चली जाती है।
सर्,इस तरह से शे'र कर लें क्या
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घटाया कब उन्होंने
बढ़ाकर फ़ासला है
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, छोटी बह्र में ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'कसम से इक क़ज़ा है'
इस मिसरे में 'क़ज़ा' की जगह "सज़ा" शब्द उचित होगा ।
'कसम'--"क़सम"--कब सीखेंगी?
'ज़बाँ की तल्ख़ियाँ ही
बढ़ातीं फ़ासला है'
इस शे'र में 'तल्ख़ियाँ' शब्द बहुवचन होने से रदीफ़ 'है' की बजाय "हैं" हो रही है, सुधार का प्रयास करें ।
नमस्कार आदरणीय ऐसा प्रतीत होता है कि आपने बहर के हिसाब से शब्दों को बिठाया है अभी आपको बहर पर मेरे ख्याल से और अधिक मेहनत करनी चाहिए बाकी भाव आपके बहुत अच्छे हैं और एक अच्छी गजल की बधाई आपको देता हूं
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