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दण्ड ये कैसा मिला

दमन कर अपनी खुशियों का,
फर्ज पर अपने डटी रही।
एक बार नहीं दो बार नहीं,
बार बार करती रही।।
समझ ना सके फिर भी मुझे क्यूं,
क्यूं बार बार झकझोर दिया।
फर्ज निभाने का मुझे,
दण्ड ये कैसा मिला?

बहु बनकर जब कभी भी,
सासु मां का साथ दिया।
रूढ़िवादी हो अम्मा की तरह,
बच्चों ने झट से कह दिया।
क्यूं समय के साथ नहीं हो,
आज समय है बदल गया।
फर्ज बहु का निभाने का,
दण्ड ये कैसा मिला?

माँ बनकर जब कभी भी,
अपने बच्चों का साथ दिया।
सर पर चढा लिया है तूने,
ताना ये सुनने को मिला।
बिगड़ रहे हैं बच्चे तेरे,
काबू में इनको रखले जरा।
मां का फर्ज निभाने का,
दण्ड ये कैसा मिला?

ससुराल के सारे रिश्तों के पाटों में,
नारी जीवन भर पिसती रही।
एकाध बार भी अगर उसने,
अपनी मर्जी से कुछ कर लिया।
आजकल की बहुएँ हैं ऐसी,
कटाक्ष फिर ये कर दिया।
अपनी मर्जी से कुछ करने का,
दण्ड ये कैसा मिला?
दण्ड ये कैसा मिला??? 

"मौलिक और अप्रकाशित"

Views: 407

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Comment by Neeta Tayal on September 10, 2020 at 10:38pm

जी शुक्रिया

Comment by आशीष यादव on September 10, 2020 at 10:15pm

Very good work. 

Comment by Neeta Tayal on September 7, 2020 at 12:14pm

बहुत बहुत आभार आपका

Comment by Samar kabeer on September 7, 2020 at 12:06pm

मुहतरमा नीता जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Dimple Sharma on September 5, 2020 at 3:58am

आदरणीया नीता तयाल जी नमस्ते, खुबसूरत रचना पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

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