बहर- 221, 2121, 1221, 212
घर से निकल के आज अदालत में आ गए,
नाज़ुक हमारे रिश्ते मुसीबत में आ गए.
हमने जरा सा आइना उनको दिखा दिया,
अहसान भूल कर वो अदावत में आ गए.
कोने में पेड़ आम का चुपचाप है खड़ा,
जंगल में थे बबूल सियासत में आ गए.
चाहत में आसमां की, जमीं भी खिसक गई,
क्यूँ गाँव छोड़ शह्र की आफत में आ गए.
दामन को हमने सत्य के थामा जरा सा क्या,
सारे महल हमारी खिलाफत में आ गए.
घंटी बजी जो द्वार की पाया उन्हें वहाँ,
थे जो हमारे ख्वाब हकीकत में आ गए.
हमको ग़मों से कोई शिकायत नहीं रही,
अब वो हमारी रोज की आदत में आ गए.
भटके जहान भर में मगर कुछ नहीं मिला,
माँ की मिली जो गोद तो जन्नत में आ गए.
मौलिक एवं अप्रकाशित .
Comment
आदरणीय आशीष यादव जी सादर नमस्कार
आपकी हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया
Very good अशआर हैं। आदरणीय उस्ताद समर कबीर साहब से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है। good गजल पर congratulations स्वीकार कीजिए।
आदरणीय Sheela Sharma जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमस्कार
आपकी इस्लाह से मुझे हमेशा ही कुछ न कुछ सीखने को मिलता है, सादर नमन आपको
बहुत सुंदर रचना..।हार्दिक बधाई।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'अहसान भूल कर वो अदावत में आ गए'
इस मिसरे में 'अदावत में आ गए' वाक्य विन्यास ठीक नहीं है, सहीह वाक्य होगा "अदावत पे आ गए"
'सारे महल हमारी खिलाफत में आ गए'
इस मिसरे में 'ख़िलाफ़त' क़ाफ़िया उचित नहीं आप यहाँ "मुख़ालिफ़त" कहना चाहते हैं,जो यहाँ आ नहीं सकता ।
आदरणीया Dimple Sharma जी सादर नमस्कार
आपकी प्रतिक्रिया के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई के लिए सादर नमन आपको
नमस्ते आदरणीय, खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें, तीसरा शेर कमाल हुआ है विशेष बधाई इस शेर पर ।
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