वहाँ एक आशिक खड़ा है ।
जो दिल तोड़ कर हँस रहा है ।।
मुहब्बत करें तो करें क्या ..?
मुहब्बत में धोका बड़ा है ।।
हमें आग का डर नहीं था ।
कि सैलाब अन्दर भरा है ।।
भले जिस्म थक हार जाए ।
अभी जोश दिल में बड़ा है ।।
ख़ुदा ख़ैर हमको मिले वो ।
ज़माना बहुत ही बुरा है ।।
कहांँ है जहाँ में मुहब्बत ।
सभी तो सभी से ख़फ़ा है ।।
हमें रात लड़ना पड़ा था ।
उजाला बहुत ग़मज़दा है ।।
यकीं कौन हम पे करेगा ।
ये ढांचा हमीं पे खड़ा है ।।
गुलाबों में कांटे बहुत है ।
गुलाबों से मन भर रहा है ।।
ये मिट्टी नहीं थी हमारी ।
हमें कुछ बदलना पड़ा है ।।
नहीं साथ अपना ही साया ।
अभी वक्त थोड़ा कड़ा है ।।
सुनो फिर से बदलेगा मौसम ।
मुझे मेरी मंजिल पता है ।।
डिम्पल शर्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी नमस्ते , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, हौंसला अफ़ज़ाई के लिए हृदय तल से आभार! स्नेह बनाए रखें।
आ. डिम्पल जी, सादर अभिवादन ।अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी नमस्ते, मेरी ग़ज़ल पर आपके विचार बहुत मायने रखते हैं बधाई हेतु धन्यवाद आभार, आशीर्वाद बनाए रखें।
हार्दिक बधाई आदरणीय डिंपल शर्मा जी।अच्छी गज़ल।
गुलाबों में कांटे बहुत है ।
गुलाबों से मन भर रहा है ।।
ये मिट्टी नहीं थी हमारी ।
हमें कुछ बदलना पड़ा है ।।
आदरणीय Rupam kumar 'मीत' जी हौंसला अफ़ज़ाई के लिए हृदय तल से शुक्रिया,धन्यवाद, आभार , स्नेह बनाए रखें।
आदरणीय उस्ताद मोहतरम Samar Kabeer साहब आदाब कबूल करें, जी मैं इन गलतियों को आपके कहे अनुसार सुधार लुंगी , आपका बहुत बहुत धन्यवाद मार्गदर्शन के लिए , आपने तो मेरी ग़ज़ल में चार चाँद लगा दिए , आशीर्वाद बनाए रखें।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'हमें आग का डर नहीं था'
इस मिसरे को यूँ कहें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'नहीं है हमें आग का डर'
'सभी तो सभी से ख़फ़ा है'
इस मिसरे में रदीफ़ 'है' की बजाय "हैं" हो रही है,इस मिसरे को यूँ कर सकती हैं:-
'यहाँ हर बशर ही ख़फ़ा है'
'हमें रात लड़ना पड़ा था ।
उजाला बहुत ग़मज़दा है'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,ऊला यूँ कर सकती हैं:-
'सबब क्या है मालूम कीजै'
'गुलाबों में कांटे बहुत है ।
गुलाबों से मन भर रहा है'
इस शैर के ऊला मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें,और सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,सानी यूँ कर लें तो ऐब निकल जायेगा:-
'गुलाबों से मन भर गया है'
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहब आपको भी अदब भरा प्रणाम आदाब सलाम , जी आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आभार, मैं इसमें हुई त्रुटियों में अवश्य सुधार करुंगी और आपसे आगे भी मार्गदर्शन की ख्वाहिश रखूंगी !
कृपा दृष्टि बनाए रखें ।
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी, आदाब। छोटी बह्र में बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें, मगर ये शेअ'र रदीफ़ से बाहर है :
कहांँ है जहाँ में मुहब्बत ।
सभी तो सभी से ख़फ़ा है । इस मिसरे को ऐसे कर सकते हैं: अभी तक वो मुझ से ख़फ़ा है। या : हर इक दूसरे से ख़फ़ा है।
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