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तिजारत कैसे की जाए हुआ है फैसला जब से
बड़ी किल्लत है पानी की लहू सस्ता हुआ जब से
मशीनें अब यहाँ पर और महंगी क्यों नहीं होंगी?
वतन में मुफ़्त ही इंसान भी मिलने लगा जब से
हमारा शह्र छोटा था मगर मिलता नहीं था वो
हमें अक्सर बुलाता है नयी दिल्ली गयाा जब से
समय के साथ कम होगी यही हम सोच बैठे थे
ये दूरी कम नहीं होती मिटा है फासला जब से
नयी शक्लें दिखाता था कभी जब सामने आया
नहीं जाता है कमरे में रखा है आइना जब से
सड़क उसने बनाई है मगर चलने नहीं देता
बहुत वीरान है रस्ता चला है क़ाफ़िला जब से
बयां करना भी मुश्किल है अभी हालात ऐसे हैं
मैं सांसें ले नहीं सकता हुई ताज़ा हवा जब से
* मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब
आदाब
आप अच्छा लिखते हैं,और छोटी मोटी ग़लतियाँ तो किसी से भी हो सकती हैं,प्रयासरत रहें,शुभेच्छाएँ ।
'हमारा शह्र छोटा है मगर मिलता नहीं था वो
अभी अक्सर बुलाता है नयी दिल्ली गया जब से'
ठीक है,सानी में 'अभी' की जगह "हमें" कर लें ।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन। कुछ कमियों के बावजूद अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर कबीर साहब
आदाब.
पहले शे'र को दुरूस्त करने की कोशिश की है
"हमारा शह्र छोटा है मगर मिलता नहीं था वो
अभी अक्सर बुलाता है नयी दिल्ली गया जब से."
आपके इस्लाह और मार्गदर्शन की दरकार है. वक़्त मिलने पर जवाब देंं
हार्दिक बधाई आदरणीय सालिक गणवीर जी। बेहतरीन गज़ल।
तिजारत कैसे की जाए हुआ है फैसला जब से
बड़ी किल्लत है पानी की लहू सस्ता हुआ जब से
// अब मैं सोचता हूँ ओबीओ की सदस्यता ग्रहण करने में देर क्यों लगा दी!!//
जब जब जो जो होना है,तब तब सो सो होता है ।
//हमारा शह्र छोटा था तो अक्सर भेंट होती थी
कभी तो लौट कर आता नयी दिल्ली गया जब से
2.सड़क उसने बनाई है मगर चलने नहीं देता
बहुत वीरान है रस्ता चला है क़ाफ़िला जब से//
दूसरा ठीक है, पहले पर अभी मिहनत करना होगी ।
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