ग़ज़ल
2122 2122 2122
मृत्यु के अनुरक्ति का अभिसार है क्या ।
मुक्ति पथ पर चल पड़ा संसार है क्या ।।
काल शव से कर चुका श्रृंगार है क्या ।
यह प्रलय का इक नया हुंकार है क्या ।।
आत्माओं का समर्पण हो रहा है ।
दृष्टिगोचर मृत्यु का उदगार है क्या ।।
कर्म की अपने समीक्षा कीजिये कुछ ।
इस धरा पर आपका अधिकार है क्या ।।
विष को नदियों में निरन्तर घोलते तुम।
सृष्टि के प्रति यह कोई मनुहार है क्या ।।
तृप्त हो मानव पिपासा रक्त से ही ।
तर्क में कुछ सत्य का आधार है क्या ।।
शस्त्र संहारक बनाते ही रहे हम ।
यह प्रकृति के मर्म को स्वीकार है क्या ।।
दिख रही ज्वाला यहां प्रतिशोध की अब ।
अग्नि यह उन्माद के अनुसार है क्या ।।
काट दे जो आसुरी आसक्तियों को ।
अब किसी तलवार में वो धार है क्या ।।
आ रहे पैदल श्रमिक अपने घरों तक ।
इसमें कोई आपका उपकार है क्या ।।
हो रही निर्दोष जनता नित्य शोषित ।
छल कपट का चल रहा व्यापार है क्या ।।
मौलिक अप्रकाशित
-- डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
आ. भाई नवीन जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ नवीन मणि त्रिपाठी जी। बेहतरीन गज़ल।
विष को नदियों में निरन्तर घोलते तुम।
सृष्टि के प्रति यह कोई मनुहार है क्या ।।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
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