हम वाणी जन हैं वाणी के
कवि लेखक हैं कलमकार।
मन जिनके निर्मल कोमल से
बहती निर्झर करुणा अपार।
हर तप्त हृदय की तपनक्रिया
का करते हैं सम्मान सदा।
जो दीन-हीन दुखियारे हैं
वे अपने हैं अभियान सदा।
जिनकी वाणी में द्रवित यहाँ
होता है बल नित अबला का।
जिनकी चर्चा में दुःख रहता
है मातृशक्ति हर विमला का।
जिनकी कलमों की धार सदा
निज संस्कृति का सम्मान करें।
जिनकी चिन्ता नित बाबू जी
की परिचर्चा का ध्यान धरें।
जिनकी कलमों की बारूदें
उन दुष्ट पिशाचों को रौंदे।
जिनके शब्दों के स्फोट सदा
नित कंस दशानन को कौंधे।
हम उन्हीं ऋषी कुल के चारी
जद में रहते अत्याचारी।
न हि वैर भाव वाणीन्द्रों का
ना देखी जाती लाचारी।
हर बार क्यूँ पिसती बेचारी?
दर दर भटके जनता सारी।
क्यूँ मौज में रहते व्यभिचारी?
क्यूँ पीर से कृषकों की यारी?
क्यूँ मेहनत की रोटी भारी?
उद्योगों में भी बीमारी।
निज खून पसीना बहा रहे
मजदूरों की किस्मत मारी?
क्या कहूँ मैं कितना वाणी का
साधक हूँ मुुुझमें अनल बहुत।
अवनीश हूँ कहता भरे कण्ठ
इस परिपाटी में गरल बहुत।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
अवनीश धर द्विवेदी
Comment
जनाब अवनीश धर जी आदाब,अच्छी रचना हुई, बधाई स्वीकार करें ।
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