मुल्क़ है ख़ुशहाल बतलाती रही मुझको हँसी
नित नये किस्सों से भरमाती रही मुझको हँसी
गफ़लतों में झूमते थे छुप गया है सूर्य अब
बादलों की सोच पर आती रही मुझको हँसी
मौत आगे लोग पीछे, था सड़क पर क़ाफ़िला
क़ाफ़िले का अर्थ समझाती रही मुझको हँसी
देखकर मायूस बचपन और सहमी औरतें
चुप्पियाँ हर ओर शरमाती रही मुझको हँसी
गालियों के संग अब तो मिल रहीं हैं लाठियाँ
मौत सच या भूख उलझाती रही मुझको हँसी
अब करोना क़हर बनकर ख़ौफ है बरपा रहा
घर में होकर क़ैद चौंकाती रही मुझको हँसी
जान ले तू सच 'अमर' के दर्द ही तेरी दवा
आइना हर बार दिखलाती रही मुझको हँसी
*मौलिक व अप्रकाशित*
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय मोहतरम समर कबीर साहेब। ठीक करने की कोशिश करता हूँ। आपका स्नेह बना रहे। आदाब।
जनाब अमर पंकज जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'अब करोना का क़हर बरपा रहा है ख़ौफ तो '
इस पंक्ति में 'क़हर' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "क़ह्र",और इसका वज़्न 21 है ।
'जान लो ये सच 'अमर' के दर्द ही तेरी दवा
आइना हर बार दिखलाती रही मुझको हँसी'
इस शैर में शुतरगुरबा दोष है,ऊला में 'जान लो' की जगह "जान ले" कर लें तो ये दोष निकल जाएगा ।
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