हवा ख़ामोश है वीरान हैं सड़कें
बहुत अब हो चुका बेकार मत भटकें
नहीं देंगे झुलसने आग से गुलसन
हमीं हैं फूल इसके रोज़ हम महकें
हमेशा ही रही तूफ़ान से यारी
घड़ी नाज़ुक अभी हम आज कुछ बहकें
हमें मंज़ूर है, हम शंख फूकेंगे
कि अब तो चश्म अपनों के नहीं छलकें
क़सम ले लें लड़ेंगे हम करोना से
मगर ऐसे कि अब दंगे नहीं भडकें
पुराना डर मुझे बेचैन करता जब
कभी उठतीं कभी गिरतीं तेरी पलकें
जमाखोरी बढ़ी मुश्किल हुआ जीना
कहो कैसे करोना में 'अमर' चहकें
*मौलिक व अप्रकाशित*
Comment
आदरणीय समर कबीर साहेब। आदाब।
ख़ुद को मैं ख़ुशकिस्मत समझ रहा हूँ, जानकर कि ग़ज़ल आप तक पहुँची मोहतरम। क़ाफ़िये को लेकर मैं ख़ुद बहुत संतुष्ट नहीं हूँ, मगर करोना के कहर के मद्देनज़र इसे कहने की कोशिश की है। शायद भविष्य में इसे ठीक कर सकूँ। दिल की गहराइयों से शुक्रिया।
जनाब 'अमर' पंकज जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,लेकिन पूरी ग़ज़ल में क़वाफ़ी ठीक नहीं हैं,देखियेगा,इस प्रस्तुति पर बधाई ।
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