सम्मोहन
सम्मोहन !
जानता था मन, शायद न लौटेंगे हम
वह प्रथम-मिलन की वेला ही होगी
शायद हमारा अंतिम मिलन
अंतिम मुग्ध आलिंगन
उस परस्पर-गुँथन में थी लहराती
चिन्तनशील यह उलझन गहरी
जी में फिर भी था अतुल उत्साह
कि रहेंगे जहाँ भी, खुले रहेंगे हमारे
सुन्दरतम मन-मंदिर के वातायन
खुले रहेंगे पूरम्पूर परस्पर प्राणों के द्वार
कि तड़पती भागती दिशाओं के पार भी
अजाने मौन में अनुभव करेंगे हम
अपने-अपने मधुर एकाँत में
मनोहर आत्मीय प्यार गहन
घोल दिया था तुमने, प्रिय, विश्वास कुछ ऐसा
खबर थी किसको, किसको पता था
कि शरद की चाँदनी में किरण-रेखा-सा
जगमगाता रहेगा स्नेह हमारा
अटल रहेगा यह स्नेह का संगम
क्षोभमय कितना भी हो चाहे
या हो उर-विदारक
बदलते जगत का चेहरा
सोचा न था कभी, प्रिय
हमारी चेतनाओं को मिलाएगी
उमड़ती कोई विवशता ऐसी
कि सपनों में भी आती रहेगी
रात की रानी-सी
स्नेह की सुगंध नशीली
मौसम बदले, आए नए वसन्त
नन्हीं नई चिड़ियों के कलरव
स्नेह की मीठी कोमल झकोर
एक स्वर एक लय
मन चंचल
प्यार अमर
क्या दें नाम हम ऐसे सलोने प्रथम मिलन को
अवशेष कहाँ है इस सनातन सम्मोहन में
स्थान कहीं भी अब विदा की वेदना के लिए
ऐसे में पूछूँ एक बात मैं, प्रिय ...
पलकें झुकाए,आँचल सँभालते
जाते-जाते घूम कर मुड़ कर
भावविभोर
चरण-स्पर्ष क्यूँ किया था तुमने ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । अच्छी कविता हुई है । हार्दिक बधाई ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीर जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीेया कल्पना जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
बहुत बढ़िया कविता हुई है आदरणीय विजय निकोर जी। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
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