गंगा, (ज्ञान गंगा व जल गंगा) दोनों ही अपने शाश्वत सुन्दरतम मूल स्वभाव से दूर पर्दुषित व व्यथित, हमारी काव्य कथा नायक 'ज्ञानी' से संवादरत हैं।
प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....
ज्ञानी का दूसरा प्रवचन (ज़ारी )
(लड़ी जोड़ने के लिए पिछला ब्लॉग पढ़ें....)
तुम्हारे ये तरू खींच लायेंगे मुझे
फिर बरसूंगी बरखा बन कर
फिर बहूंगी गंगा बन कर
पहाडों में मैदानों में...'
शिव हंसने लगे
‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना.
शिव का भारी स्वर:
तुम्हें हर्ष न होगा बहने में मैदानों में
यह हिमालय ही घर है तुम्हारा
वहां पार मैदानों में
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है
हजारों टन मानव मल
मानवीय आबादियों से बहता हुआ
जल व मल प्रबंधन में मानव अभी भी स्हसरों वर्ष जैसा ही है
जल से मल निकालने के लिए मानव अभी तक
प्रकृति की चत्रुता पर ही निर्भर है
जल व मल अभी भी साथ साथ बहते हैं
साथ साथ उपयुक्त होते हैं
मानव द्वारा’
‘हत्!’ गंगा बोंलीं
‘कैसी बात करते हो! शिव!
क्या मानव ऐसा है
क्या वह कीटों से भी निमनतर है
दुनियां भर के कीट वनस्पति जगत से अपनी इच्छा का एक द्रव्य चुन लेते हैं
उसे ले लेते हैं और शेष प्रकृति का नुकसान नहीं करते'
‘और गंगे,’ शिव का स्वर
‘उस चक्षुयुक्त अति ज्ञानि मानव के लिए
अभी भी जैविक प्राणि वनचर परिंदे व कीट हैं
या जलचरों में मीन या घडियाल
जल में रहते स्हसरों सूक्ष्म प्राणि नहीं
वे उस का ग्रास बनते हैं
बाद में वह उन का
पुनः कहता हूं
उस ज्ञानि विज्ञानि मानव के लिए
भौतिक प्रकृति ही सब कुछ है
रासायण है प्रकृति में तो प्रकृति की सरदर्दी
रासायणक मल जल व पृथ्वि में मिलाना उस का स्वभाव है
वहां किनारें पर न जाने कितने रासायणक गृह हैं
वह सारा रासायणक मल
तुम्हारे पानियों में घुल जाने को तैयार है’
गंगा जी डर गईं
‘क्या कहते हो शिव भाई
मैं पवित्र जल से मल का नाला बन जाउंगी
मैं तो प्रसन्न थी स्वर्ग में बादलों में
मैं तो आना न चाहती थी धरती पर
आह! अब मैं कहा जाउं’
गंगा जी गहन पीडा में उूब गई.
ज्ञानी के माथे की रेखायें खिंच गईं.
उस की वाणि गले में रूंध गई.
वह आगे कुछ बोल न सका....
(इति द्वितीय खंड)
Comment
आप का कहना अति उचित है माननीय coontee mukerji जी। शायद यही वजह है की हम प्रकृति की हर सौगात को निश्चित मान बैठे हैं। यह हमारा आलस्य है जो हम प्रकृति से ऐसा अन्याय कर रहे हैं।
धन्यवाद माननीय rajesh kumari जी आप ने उचित शब्दों में रचना को सराहा। कृपया सहयोग बनाये रखें। आने वाले अंकों में हम ज्ञान गंगा के प्रदुषण के बात भी करेंगे।
ओमकार जी नमास्कार , जिस गंगा की हम इतनी श्रद्धा से पूजा करते है जिसकी सौंदर्य का वर्णन कर हम अघाते नहीं ,अंत में उसीकी
दुर्दशा टुकुर टुकुर आँखों से देखते रहते है. मैं कर्म पर विश्वास करती हूँ. गुस्सा तो बहूत आता है लेकिन इसका ज़िम्मेदार हम
तथाकथित बड़े लोग है. इसकी शुरूआत हमारे घ्रर से होता है अगर दो दिन हमारे नौकर काम पर नहीं आता है तो घर में कूड़ा पड़ा
रहता है.अगर हमारे घर का यह हाल हैं तो बेचारी गंगा को कौन पूछे . हम सिर्फ़ लेक्च्रर दे सकते हैं . सफ़ाई करना क्या हमारी
शान के खिलाफ़ नहीं है .सिर्फ़ एक दिन जितने लोगा गंगा के दर्शन करने जाते हैं अगर हाथ जोड़ने के बदले गंगा की सफ़ाई कर
दे तो दोनों का कल्यान हो जाए.
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