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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८१

2122 1122 1122 22/ 112

बज़्मे अग्यार में नासूरे नज़र होने तक
क्यों रुलाता है मुझे दीदा-ए-तर होने तक //१

कितने मुत्ज़ाद हैं आमाल उसके कौलों से
टुकड़े करता है मेरा लख़्ते जिगर होने तक //२

गिर के आमाल की मिट्टी में ये जाना मैंने
तुख़्म को रोज़ ही मरना है शज़र होने तक //३

मौत का ज़ीस्त में मतलब है अबस हो जाना
ज़िंदा हूँ हालते बेजा में गुज़र होने तक //४

बूदे आफ़ाक़ी का दरमाँ नहीं है दुनिया में
जीना पड़ता है फ़रिश्तों की नज़र होने तक //५

क़ब्ल मिलने से तेरे कब था सुकूं जीने में
रहगुज़ारों में भटकते रहे घर होने तक //६

उसने शाइस्तगी से क़त्ल मेरा कर डाला
ज़िंदा रक्खा है किसे उसने ख़बर होने तक //७

दुख में फ़ौरन ही दवा काम नहीं करती है
दर्द को झेलना पड़ता है असर होने तक //८

ख़्वाबबीदा है अगरचे ये ज़माना शब में
रात ख़ुद जागती है वक़्ते सहर होने तक //९

इश्क़ उसका है फ़ुसूं 'राज़' ख़यालों में मेरे

रेग का सीप में तब्दीले गुहर होने तक  //१०

~राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

बज़्मे अग्यार- ग़ैर लोगों की महफ़िल; मुत्ज़ाद- परस्पर विरोधी, विपरीत; आमाल- कर्म; कॉल- कथन; लख्ते जिगर- जिगर का टुकड़ा, प्यारा होना; तुख्म- बीज; शज़र- पौधा, पेड़; अबस- निष्फल, व्यर्थ; बूदे आफ़ाकी- सांसारिक अस्तित्व; दरमाँ- इलाज; ख़्वाबबीदा- ख़्वाब में डूबा; सदफ़- सीप; तख़लीक़े गुहर- मोती की रचना




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Comment by Samar kabeer on December 13, 2018 at 10:53pm

जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।


'बूदे आफ़ाक़ी की दरमाँ नहीं है दुनिया में'

इस मिसरे में 'की' को "का" कर लें ।

सदफ़े नाचीज़ में तख़लीक़े गुहर होने तक'

इस मिसरे में 'सदफ़े' शब्द ग़लत है सहीह होगा ",सदफ़-ए-",अगर सहीह शब्द रखा तो मिसरा बेबह्र हो जाएगा,देखें ।

Comment by राज़ नवादवी on December 12, 2018 at 7:59pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आदाब। ग़ज़ल में शिरकत और हौलसा अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया। सादर। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 12, 2018 at 5:56pm

आ. भाई राज नवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

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