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ग़ज़ल (मेरी आँखों में तस्वीरे दिलदार है )

(फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन---फ़ाइलुन)

हो रहा उनका हर वक़्त दीदार है |
मेरी आँखों में तस्वीरे दिलदार है |

कुछ तो है दोस्तों शक्ले महबूब में
देखने वाला कर बैठता प्यार है |

उनका दीदार मुमकिन हो कैसे भला
उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है |

मुझ पे तुहमत दग़ा की लगा कर कोई
कर रहा ख़ुद को साबित वफ़ादार है |

चाहे दीदारे दिलबर ,दवाएं नहीं
वो हकीमों मुहब्बत का बीमार है |

उसको क्या वारदाते जहाँ की ख़बर
जो पढ़े ही नहीं रोज़ अख़बार है |

चाहे कुछ भी हो अंजाम तस्दीक़ अब
कर दिया उनसे उल्फ़त का इज़्हार है |

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by Samar kabeer on March 14, 2018 at 3:01pm

जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है'

इस मिसरे में 'बुर्क़े' को दीवार से तशबीह सही नहीं है, ग़ौर कीजियेगा ।

'जो पढ़े ही नहीं रोज़ अख़बार है'

इस मिसरे में शिल्प कमज़ोर है'देखियेगा ।

Comment by Harash Mahajan on March 14, 2018 at 2:23pm

'उनका दीदार मुमकिन हो कैसे भला
उनके चहरे पे बुर्क़े की दीवार है |"

खूब कहा आ0 तस्दीक अहमद साहब। अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई । बाकी गुणीजन ही बताएंगे ।

सादर ।

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