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हमारे सामने सबने कसम गीता की खाई है
जला पुतला सभी ने पाप की कर दी विदाई है
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सभी ये बेटियाँ बहनें सुरक्षित आज से होंगी
अजी रावण की रावण ने यहां कर दी पिटाई है
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बड़ी बातें सभी करते नही है राम कोई भी
कहीं हिन्दू कहीं सिख है यहाँ कोई ईसाई है
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न होती धर्म की सेवा न है संस्कार से नाता
दया बसती नही दिल में दिखावे की भलाई है
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लगाकर हाथ आँचल को वहीं खींसे निपोरेंगे
अजी भीतर के रावण ने हथेली अब खुजाई है
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उठो इस कलयुगी रावण से अब दुश्वार है जीना
यहाँ साधू जिसे समझा वो निकला आतताई है
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अहंकारी की मस्ती में मर रही आज मानवता
कहीं है द्रोपदी लुटती कहीं सीता जलाई है
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जलाए हर बरस रावण जहां भर में दिखाने को
मगर भीतर के रावण को नही माचिस दिखाई है
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी ,सादर अभिवादन ,रचना को समय देने व् उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद। संशोधन में देरी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।आद0 Samar kabeer जी के मार्गदर्शन अनुसार संशोधन कर दिया है । सादर।
आ.अलका जी,
अच्छा प्रयास हुआ है... गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें
सादर
आदरणीय Afroz 'sahr' जी ,सादर अभिवादन ,रचना को समय देने व् उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद। संशोधन में देरी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ । सादर।
आदरणीय Samar kabeer जी ,सादर अभिवादन ,रचना को समय देने व् उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद। मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत आभार । अभी संशोधन करती हूँ। सादर।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ,सादर अभिवादन ,रचना को समय देने व् उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद। । सादर।
आदरणीय Mohammed Arif जी ,सादर अभिवादन ,रचना को समय देने व् उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद। कृपया यदि सम्भव हो तो वर्तनी की अशुद्धियां जरा clearly बताइये। सादर।
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