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प्रकाश को काटते नभोचुम्बी पहाड़

अब हुआ अब हुआ अँधेरा-आसमान ...

अनउगा दिन हो यहाँ, या हो अनहुई रात

किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह

दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको

और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ

पर आते ही आमने-सामने सुनता हूँ आवाज़ें

इस नए निज-सर्जित अकल्पनीय एकान्त में

अनबूझी नई वास्तविकताओं के फ़लसफ़ों में

और ऐसे में अपना ही सामना नहीं कर पाता

झट किसी दु:स्वप्न से जागी, भागती, हाँफती

लौट आती है भीषण वेदना पूछने दु:खांत प्रश्न

प्रकाश को काटते  गूंगे अवाक खड़े  पहाड़ से

भीतर फिर से फैल रहे  तनाव के आसमान से 

प्रलय...

चुप है नभोचुम्बी पहाड़

चुप है गंभीर अँधेरा-आसमान

           ----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 5:09pm

//आपकी कल्पना की उड़ान नये जौहर लेकर कविता के रूप में आ जाती है,और मुझे मुग्ध कर देती है//

आपके कहे यह शब्द मेरे लिए विशेष मान्य रखते हैं और प्रेरणा देते  हैं, हार्दिक आभार आदरणीय भाई समर जी। 

टंकण-त्रुटि बताने के लिए भी आभार। संशोधन कर रहा हूँ। 

Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 5:03pm

//हमेशा की तरह एक गहन अभिव्यक्ति समेटे अप्रतिम प्रस्तुति//

आपसे मिली इस उदार सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी

Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 5:02pm

//उम्दा सृजन, भाव पक्ष बेहद मजबूत//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुरेन्द्र जी 

Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 5:00pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी ।

Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 4:58pm

//क्या सुंदर अभिव्यक्ति है ।बहुत ही सुंदर चित्रण //

आपसे मिली सराहना से मुझको और प्रेरणा मिली है। हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ भाई।

Comment by vijay nikore on August 24, 2017 at 4:55pm

//रचना शैली का एक और उत्तम उदाहरण है//

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2017 at 9:13am

आदरनीय बड़े भाई , हमेशा की तरह खूब सूरत भाव पूर्ण कविता की रचना की है आपने । हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 22, 2017 at 5:49pm
मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब ,बहुत ही सुन्दर रचना हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
Comment by Samar kabeer on August 21, 2017 at 11:35pm
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,आपकी कल्पना की उड़ान नये जौहर लेकर कविता के रूप में आ जाती है,और मुझे मुग्ध कर देती है,

किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह
दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको
और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ
'दरगाह'शब्द ने इस कविता को जिस ऊंचाई तक पहुंचा दिया है,उसकी तारीफ़ शब्दों में करना मुमकिन नहीं,इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है,बहुत ख़ूब वाह इस लाजवाब कविता के लिये दिल की गहराइयों से दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
एक शंका है, तीसरी पंक्ति में 'अनुउगा' या "अनउगा" ?
Comment by Sushil Sarna on August 21, 2017 at 4:29pm

आदरणीय विजय निकोर साहिब , आदाब   ... हमेशा की तरह एक गहन अभिव्यक्ति समेटे अप्रतिम प्रस्तुति को  आपने अपने पाठकों को नवाज़ा है।  इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर। 

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