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(बह्र ए मीर)

वो आएं मैं चहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है
उन्हें देख कर चमक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

तन पाटल चन्दन मन सुरभित वाणी ज्यों कचनार झरे
उनसे मिल कर महक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

गेंहुवन रंग लटें नागिन सी हृदय पे सीधे वार करें
फिर भी उनके निकट न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

सुर सरिता अधरों से बहती, इधर राग स्नेहिल पंछी
कोकिल स्वर संग कुहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

भाव भंगिमाओं का उत्तर, और किसी के पास नहीं
रूप अग्नि संग दहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on February 9, 2017 at 9:14pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे शैर में क़ाफ़िया दोष है,देखिये "निकट" ।
Comment by Mohammed Arif on February 9, 2017 at 5:58pm
आदरणीय पंकज जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई क़ुबूल.करें ।बह्र के मुताल्लिक विद्वान अपनी राय रखेंगे ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 9, 2017 at 5:18pm

आदरणीय पंकज जी मुझे आपकी यह ग़ज़ल बेहद पसंद आयी ..कमाल की इस रचना पर ढेर सारी बधाई सादर

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