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रेत पर कोई हुनर होने को है (ग़ज़ल)

2122 2122 212

उसका हमला रात भर होने को है
कब तलक जागूँ? सहर होने को है

भीड़ सारी उस तरफ जुटने लगी
मोजिज़ा कोई जिधर होने को है

लौ चिराग़ों की हवा ने तेज़ की
ख़ाक लेकिन मेरा घर होने को है

मिल गया इक ख़ूबसूरत हमसफ़र
अब तो सहरा भी डगर होने को है

आधुनिकता के नशे में डूब कर
हर बशर अब जानवर होने को है

लहलहाने को है फ़स्ल अश्क़ों की "जय"
रेत पर कोई हुनर होने को है

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Samar kabeer on January 23, 2017 at 3:12pm
जी,बहुत बहुत शुक्रिया,मैं तो मंच का सेवक हूँ भाई ।
Comment by Ravi Shukla on January 23, 2017 at 12:52pm

आदरणीय जयनित जी गजल के लिय आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय समर साहब की इस्‍लाह से बहुत फायदा हआ है इसी बहाने कई बारीकियां जानने को मिली जो कि आने वाले मुशायरे में हमाारे भी काम आएंंगी । पुन: आपको गजल के लिये मुबारक बाद । आदरणीय समर साहब आपका भी बहुत बहुत आभार ।

Comment by नाथ सोनांचली on January 23, 2017 at 8:53am
पहले तो मैं आद0 समर साहब का शुक्रिया अदा करूँगा की उन्होंने इस ग़ज़ल के हरेक शैर पर इतनी अच्छी इस्लाह की, हम जैसे नये शायरों को फायदा होंगा,
जयनित मेहता जी सादर अभिवादन, आपके प्रयास की भूरि भूरि प्रसंशा और दाद देता हूँ।
Comment by Samar kabeer on January 22, 2017 at 10:28pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
एक नज़र में कोई देखे तो ग़ज़ल उसे अच्छी लगेगी,लेकिन जब बारीकी से इसे देखा जाये तो कुछ कहा जा सकता है ।
मतला:-
उसका हमला रात भर होने को है
क़ब तलक जागूँ सहर होने को है
उसके हमला करने के बारे में आप उस वक़्त बता रहे हैं जब सहर होने को है, कि रात भर हमला होगा,क़ब तलक जागूँ,अब सहर तो क़रीब है, फिर क्या पूछना कि क़ब तलक जागूँ ? है न अजीब बात ।
भीड़ सारी उस तरफ़ जुटने लगी
मोजिज़ा कोई जिधर होने को है
एक बात तो ये कि इस ग़ज़ल की रदीफ़ 'होने को है'यानी अभी हुआ नहीं है,अब आपके शैर में ये कथ्य है कि भीड़ को मालूम है कि मोजिज़ा होने वाला है ?
लौ चिरागों की हवा ने तेज़ की
ख़ाक लेकिन मेरा घर होने को है
इस शैर के सानी मिसरे में 'लेकिन'शब्द शैर को कमज़ोर कर रहा है,यहाँ 'लेकिन'की जगह "अब तो" कह सकते हैं ।
मिल गया इक ख़ूबसूरत हमसफ़र
अब तो सहरा भी डगर होने को है
इस शैर में क़ाफ़िया 'डगर'भर्ती का है, मिसरा यूँ कह सकते हैं:-
'अब तो आसाँ ये सफ़र होने को है' ।
आधुनिकता के नशे में डूब कर
हर बशर अब जानवर होने को है । ये शैर बहुत उम्दा हुआ है,वाह ।
लहलहाने को है फ़स्ल अश्कों की 'जय'
रेत पर कोई हुनर होने को है ।
मक़्ते का सानी मिसरा ऊला से रब्त पैदा नहीं कर पा रहा है,इस शैर को यूँ कह सकते हैं:-
'लहलहाती फ़स्ल है अश्कों की 'जय'
कोई तो हासिल समर होने को है ।-समर यानी 'फल'

बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by Mohammed Arif on January 22, 2017 at 8:40pm
आदरणीय जयनित कुमार मेहताजी, आदाब ! क्या ग़ज़ल कही है आपने , बहुत खूब , वाह ! वाह !! बधाई ।

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