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जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना (ग़ज़ल)

१२२ १२२ १२२ १२२

 

मेरी नाव का बस यही है फ़साना

जहाँ हो मुहब्बत वहीं डूब जाना

 

सनम को जिताना तो आसान है पर

बड़ा ही कठिन है स्वयं को हराना

 

न दिल चाहता नाचना तो सुनो जी

था मुश्किल मुझे उँगलियों पर नचाना

 

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी

न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना

 

कहीं तोड़ लाऊँ न सचमुच सितारे

सनम इश्क़ मेरा न तुम आजमाना

 

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना

----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 6, 2016 at 11:33am

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी

न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना------क्या अंदाज़ है वाह्ह्ह 

 

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना...शानदार 

इस खूबसूरत ग़ज़ल पर दिल से बधाई लीजिये आ० धर्मेन्द्र जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 1, 2016 at 9:58am

बढ़ा ताप दुनिया का पहले ही काफ़ी

न तुम अपने चेहरे से जुल्फ़ें हटाना..................वाह क्या बात है धर्मेन्द्र जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

ये बेहतर बनाने की तरकीब उसकी

बनाकर मिटाना मिटाकर बनाना...बेहतरीन 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सरिता जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुशील जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय नादिर ख़ान जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:58pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सूबे सिंह जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:58pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रामबली जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:57pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय आमोद जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 29, 2016 at 9:56pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर साहब।

Comment by sarita panthi on March 29, 2016 at 9:15pm

लाजवाब लिखा है आपने 

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