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नज़दीक़ियां-दूरियां - (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (39)

संयुक्त परिवार के मुखिया अपने कमरे में पधार चुके थे। पोता-पोती अपने-अपने कमरों में जाकर टीवी पर मनपसंद चैनल देखने लगे थे। बहुयें अपने-अपने कामों में व्यस्त थीं। एक बहू ने अपनी पारी संभालते हुए मुखिया की टेबल पर खाना-पानी परोसा और फिर वह भी अपने कमरे में टीवी पर मनपसंद धारावाहिक देखने लगी। मुखिया का भोजन जैसे-तैसे सम्पन्न हुआ। थाली शेष बचे भोजन सहित टेबल पर बहू के इंतज़ार में पड़ी रही। मुखिया ने एक धार्मिक पुस्तक उठायी, टीवी ओन किया, अपनी पसंद का न्यूज चैनल लगाया, कुर्सी पर बैठे तीन काम शुरू किए- पुस्तक पढ़ते हुए माला जपना और साथ ही तेज़ आवाज़ के साथ टीवी की न्यूज सुनना या देखना। कमाऊ बेटे काम पर गये थे, बेरोज़गार बेटे टीवी पर अपनी-अपनी पसंद के चैनलों से नाता जोड़े हुए थे या मोबाइलों से कहीं जुड़े हुए थे। घर के अन्दर-बाहर टेलीविजनों की ऊँची आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। संयुक्त परिवार में प्रतिदिन की तरह सब कुछ ठीक-ठाक था। नज़दीकियां भी थीं, दूरियां भी थीं। भावनाओं का, विचारों का सहज सम्प्रेषण नहीं था, सब के बीच एक अज़ीबो-ग़रीब फासला बरकरार था।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sushil Sarna on December 2, 2015 at 12:55pm

परिवारों में एक साथ रह कर भी बढ़ती संवेदनहीनता का आपने अपनी लघुकथा में बहुत सुंदर चित्रण किया है. हार्दिक बधाई आदरणीय। 

Comment by नादिर ख़ान on December 2, 2015 at 12:12pm

 जनाब उस्मानी साहब आजकल ये नज़ारा हर घर में आम हो चला है। एककमरे में कई लोग घंटों बैठे होते हैं परंतु बातें आपस में नहीं होती ।एकसंवेदनशील रचनकार की तरह आपने सुंदर तरीके से रच्ना को प्रस्तुत किया बहुत मुबारकबादआपको....

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