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परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए(ग़ज़ल 'राज')

221  2121  1221  212

 

उनके खजाने जैसे ही वोटों से भर गये                                                                                                                                       नकली लगे हुए वो मुखौटे उतर गये

आकाश में उड़े न उड़े फिक्र क्या उन्हें

,जाते हुए गरीब के वो पर कुतर गए

 

उनका उभर गया है जमीर आईने में क्या,

जो  लोग आज अक्स से अपने ही डर गए.

 

हर सिम्त दर्द-ओ-गम का समंदर उमड पड़ा,

माकूल हसरतों के जजीरे बिखर गए

 

मायूस ढूँढती फिरें सरहद की बुलबुलें,

अब देश भक्ति के वो तराने किधर गए.

 

गलती करें तो सोचते किसका पड़ा असर

,बच्चे हमारे अपने हैं तो अपने पर गए

 

वो दूसरों के अश्क सदा देखकर हँसे

,ठोकर जो जिन्दगी में मिली तो सुधर गए

 

करते रहे सितम पे सितम बे जुबानो  पर,

उनकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए.

 

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.

 

रंगीनियाँ बिखेरती कातिल अदा से वो                                                                                                 सैय्याद की गिरफ्त में सारे हुनर गए.

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 7:12pm

मिथिलेश भैया ,ग़ज़ल पर आपकी पहली प्रतिक्रिया से उत्साहित हूँ तथा आश्वस्त भी हुई की अशआर अपना प्रभाव छोड़ पा रहे हैं आपकी इस्स्लाह भी स्वागत योग्य है दिल से बहुत- बहुत आभार आपका| 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 2, 2015 at 5:25pm

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.

 

रंगीनियाँ बिखेरती कातिल अदा से वो                                                                                                                                              सैय्याद की गिरफ्त में सारे हुनर गए. इन दो शेरो के लिए बिशेष रूप से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 2, 2015 at 5:11pm

आदरणीया राज जी ..हर शेर बहुत पसंद आया ..इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Ravi Shukla on November 2, 2015 at 2:57pm

अाइरणीया राजेश जी सादर प्रणाम

सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें

राजनीति के सच को बयान करता मतला    बहुत खूब

उनके खजाने जैसे ही वोटों से भर गये

नकली चढ़े वो झट से मखौटे उतर गये   नकली लगे हुए थे मुखौटे उतर गये

उनका उभर गया है जमीर आईने में क्या,

जो आज लोग अक्स से अपने ही डर गए.  इस शेर के सानी मे आज और लोग का वज्न एक ही है आज पहले लिखने से प्रवाह थोड़ा बाधित हो रहा है इसको ऐसे भी पढ़ सकते है ..... जो लोग आज अक्स से अपने ही डर गए.

हर सिम्त दर्द-ओ-गम का समंदर उमड पड़ा,

माकूल हसरतों के जजीरे बिखर गए  वाह वाह क्‍या बात है एक तो हसरते उपर से माकूल क्‍या बात है और उस पर सितम ये कि हसरतो के भी जजीरे बिखर गये  मायूसी का अच्‍छा चित्रण है

गलती करें तो सोचते किसका पड़ा असर

,बच्चे हमारे अपने हैं तो अपने पर गए   सुन्‍दर शेर है किसी की तरफ एक उंगली उठाने पर बाकी की तीन तो हमारी तरफ ही होती है  मुहावरे का सुन्‍दर प्रयोग है ( अपने पर गये )

रंगीनियाँ बिखेरती कातिल अदा से वो

सैय्याद की गिरफ्त में सारे हुनर गए. हा हा हा होशियारी भी जरूरी है चमन में आजकल । खैर परिहास अलग बात है आदरणीया ग़ज़ल पर शेर दर शेर दिली दाद कुबूल करें । सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 2, 2015 at 2:43pm

आदरणीया राजेश दीदी, बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है. मतला लाजवाब बना है. गरीब के पर, अक्स से डर, जजीरे बिखर, जुबान अखर और शज़र वाले शेर बहुत पसंद आये. एक निवेदन //जब जीस्त में मिली कई ठोकर सुधर गए// इस मिसरे में जीस्त की बजाय जिंदगी रखकर मिसरा बने तो आनंद आ जाये. इस शानदार ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए. सादर नमन 

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