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मटमैले सपने ( लघुकथा )

उसका सपना था कि वो अंतरिक्ष में जाये , उस धवल और खूबसूरत चाँद को छुए जिसके बारे में वो पढ़ती रही थी | आखिरकार उसे दाखिला मिल गया विदेश की एक यूनिवर्सिटी में |
लेकिन पैसों का इंतज़ाम , ऐसे में याद आया वो |
" तुझे चाँद छूने से कोई नहीं रोक सकता ", वादे पर ऐतबार करके उसके साथ निकल गयी बत्तियों से जगमगाते महानगर की ओर |
अब उस सीलन भरे कोठे में रातों को चांद , सपनों की तरह बहुत मटमैला दिखता था |
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on June 10, 2015 at 3:37am

बहुत बहुत आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी..

Comment by somesh kumar on June 9, 2015 at 11:23pm

अच्छी लघुकथा ,चाँद के साथ यहाँ सपने और भरोसा वो भी मटमैला हो रहा है |बधाई

Comment by विनय कुमार on June 9, 2015 at 12:22pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , आप की टिप्पणी हमेशा मार्गदर्शन करती है.

Comment by विनय कुमार on June 9, 2015 at 12:21pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी , आपके सब प्रश्न जायज़ हैं | दरअसल प्यार और मंज़िलों की चाह , ये दो चीजें इंसान को अँधा बना देती है और अगर ये दोनों साथ मिल जाएँ तो फिर विवेक ख़त्म हो जाता है | आपसे ऐसे ही विश्लेषण की हमेशा उम्मीद रहेगी जिससे अपनी कमियां भी पता चलें | 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 9, 2015 at 11:22am

आ० विनय जी

क्या कहूं , राजेश दीदी का प्रश्न भी जायज है  पर  विश्वास- कर  महिलायें  अकसर पतन की और ही जाती है  i इस प्रतिभा के लिए यही कहूँगा -                              जमाने ने मारे जवान कैसे कैसे

                                      जमीं खा गयी आसमान कैसे-कैसे


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Comment by rajesh kumari on June 9, 2015 at 10:48am

हालांकि बाहर की यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना इतना आसान नहीं फिर भी जिसने  अपने दम पर (पढ़ाई के )बाहर की यूनिवर्सिटी में दाखिला ले भी लिया हो तो बाकी पैसों के लिए ऐसा गलत रास्ता अख्तियार करे ?

यदि धोखे में कर भी लिया तो क्या धोखा  देने वाले को विस्फोटक चाँद न दिखाए खुद हालात से समझौता  कर टमैला चाँद देखने के बजाय ?बहुत से सवाल खड़ा करती है लघु कथा |बधाई विनय भैया 

Comment by विनय कुमार on June 9, 2015 at 1:30am

बहुत बहुत आभार आदरणीय  जितेन्द्र पस्टारिया जी , सवाल तो खड़े होते ही हैं , आभार . 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 9, 2015 at 1:08am

अंतिम पंक्ति अचानक से मन में कई सवाल खड़े कर देती है. क्या ख्वाइशे पूरी हो इसलिए कुछ भी करगुजरना, मंजिलों पर पहुंचकर सुकून देता होगा..? प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें ,आदरणीय विनय जी

Comment by विनय कुमार on June 8, 2015 at 8:43pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय महर्षि त्रिपाठीजी .

Comment by maharshi tripathi on June 8, 2015 at 6:21pm

अपनी ख्वाहिशों  की पूर्ति के लिए कुछ भी करना पड़ता है ,,बहुत सुन्दर आ. vinaya kumar singh जी |

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