मेरे पास,
थोडे से बीज हैं
जिन्हे मै छींट आता हूं,
कई कई जगहों पे
जैसे,
इन पत्थरों पे,
जहां जानता हूं
कोई बीज न अंकुआयेगा
फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज
इस उम्मीद से, शायद
इन पत्थरों की दरारों से
नमी और मिटटी लेकर
कभी तो कोई बीज अंकुआएगा
और बनजायेगा बटबृक्ष
इन पत्थरों के बीच
कुछ बीज छींट आया हूं
उस धरती पे,
जहां काई किसान हल नही चलाता
और अंकुआए पौधों को
बिजूका गाड़ कर
परिंदो से नही बचाता
जानता हूं, फिर भी
कुछ बीज अपने आप
पृकृति से हवा पानी
लेकर लहलहाएंगे
जंगली ही सही
कुछ फलफूल तो आयेंगे
कुछ बीज छींट आया हूं
बाल्कनी मे रखे गमलों मे
जिन्हे कोई रोज अपने हाथों से
निराई गुडाई करता है
और देता है जलार्ध्य
जिनमे निष्चित ही उगेंगे
कुछ खूबसूरत फल फूल
और बोन्साई
लेकिन,
अभी भी कुछ बीज बच रहे हैं
जिनके लिये तलाश है
एक उर्वरा और तैयार भूमि की
एक समर्पित किसान की
और,
कुछ बीज अपने अंदर भी रोप लिये हैं
अंकुआने के लिय,
कुछ और बीज इकटठा करने के लिये
.
मुकेश इलाहाबादी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आशावादी सोच की इस रचना का सादर अभिनन्दन आदरणीय मुकेश जी
एक समृद्ध सोच से उपजी इस रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ, भाई मुकेशजी.
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति। बहुत खूब भाई मुकेश इलाहाबादी जी
BAHUT BAHTU SHUKRIAA AUR AABHAAR - RACHNAA PASANDGEE KE LIYE - DR, PRACHI JEE , LAXMAN DHAMANEE JEE, GIRIRAJ JEE, ER, GANESH JEE, RAJESH KUMARI JEE, MAHRISHI TRIPATHI JEE, GOPAL NARAYAN JEE, SHYAAM NARAYAN VERMAA JEE AUR SABHEE MITRA GAN
आदरणीय मुकेश जी
सद्भाव के बीज पथरीली, बंजर, उर्वरा हर भूमि पर छिटकाने ही चाहिए... समयानुरूप नमी लेकर लहलहा ही उठते हैं
बधाई इस प्रस्तुति पर
आ. मुकेश भाई ,इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई ।
आ, मुकेश भाई , बढिया कविता हुई है , हार्दिक बधाई ।
आदरणीय मुकेश जी, अच्छी कविता हुई है, अंतिम स्टेंजा प्रभावशाली है, टंकण की त्रुटियां चुभती है, बधाई इस प्रस्तुति पर .
और,
कुछ बीज अपने अंदर भी रोप लिये हैं
अंकुआने के लिय,
कुछ और बीज इकटठा करने के लिये-----इन पंक्तियों ने रचना को और ऊँचाइयाँ प्रदान की है |बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..बधाई आपको आ० मुकेश श्रीवास्तव जी
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