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मंदबुद्धि और भोला रामदीन वर्षों से अपने परिवार व् गाँव  से  दूर , दूसरे गाँव  में काम करके अपने परिवार में अपनी पत्नी व् बेटे का पालन करते-करते, विगत कुछ महीनों से बहुत थक चुका है. शरीर से बहुत कमजोर भी हो गया है , आखिर उम्र भी पचपन-छप्पन के लगभग जो हो गई.  अब तो कभी-कभी खाना ही नही खा पाता. पहले कई वर्षों तक रामदीन का मालिक उसके परिवार तक उसकी पगार पंहुचा दिया करता था. अब रामदीन का बेटा बड़ा हो गया है, कमाने भी लगा है अपने ही गाँव में. कुछ महीनों से उसकी पगार लेने भी आता जाता है..

..आज फिर रामदीन की पगार का दिन है, उसका बेटा आया हुआ है. रामदीन एक उम्मीद लिए हुए  मालिक के घर, दरवाजे पर खड़ा है शायद  उसकी  इस माह की पगार के साथ उसका बेटा उसे भी अपने साथ ले जाए..

“देखो भाई!! अब तुम्हारे पिता से कोई काम नही बनता, आये दिन बीमार बने रहते है. उन्हें तो तुम अब अपने साथ ले जाओ, अब तो तुम भी कमाने लगे हो ”   मालिक ने रामदीन के बेटे को कहा

“ बस! आप बस कुछ समय और निकाल दो . आप तो जानते ही हो महंगाई कितनी ज्यादा हो गई है, पिताजी की कमाई का बड़ा सहारा है”   रामदीन के बेटे ने मालिक को कहा

       अपने बेटे और मालिक की बातें सुनकर रामदीन दरवाजे से बाहर की ओर चल दिया,  यह सोचकर की अगले माह उसका बेटा उसे....

    

      जितेन्द्र ‘गीत’

(मौलिक व् अप्रकाशित)     

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 20, 2014 at 10:51pm

रचना पर आपके स्नेह हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया राजेश दीदी.

सादर!

Comment by savitamishra on August 20, 2014 at 7:41pm

भावपूर्ण कथा ......अगले माह उसका बेटा उसे....शायद राह ही देखता रहें बस

Comment by Ravi Prabhakar on August 20, 2014 at 7:28pm

स्नेहिन मित्रवर,
    लघुकथा का परिमाण उस सीमा तक ही लघु हो जिस सीमा तक वृत्तांत के मूल संरचनात्मक तत्त्व सुनिश्चित रहें और अर्थसंचार की कोई समस्या न हो। यद्यपि लघुकथा का प्रभाव इसके परिमाण के विपरीत ही अनुपात रखता है और लघुकथा की तीक्ष्णता और एकाग्रता के लिए इसका परिमाण लघु होना आवश्यक भी है परन्तु यह इतना लघु भी ना हो कि इसमें से कथा-तत्त्व ही लुप्त हो जाए। मेरे विचार से पूर्व प्रकाशित लघुकथा में शायद यह कुछ त्रुटिया रह गई थी परन्तु इसके संशोधित रूप से मैं पूर्णतयः संतुष्ट हूँ। मुझे इस बात की हार्दिक प्रसन्नता है कि आपने मेरे और आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी के परामर्श को अन्यथा न लेकर इस पर साकारात्मक रूप से विचार किया। अब सोना तप कर कुन्दन के रूप में बाहर निकल कर आया है। एक सफल लघुकथा की प्रस्तुति के लिए दिल से शुभकामनाएं। धन्यवाद।

Comment by Shyam Narain Verma on August 20, 2014 at 5:52pm
भावपूर्ण लघु कथा। बधाई, आदरणीय................
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 20, 2014 at 1:47pm

जीतू भाई

आपने इस कहानी को जो अंतिम टच दिया है  इवः बेमिसाल है i आपको बधाई i

Comment by विनय कुमार on August 20, 2014 at 12:41pm

बहुत अच्छी लघुकथा जितेंद्रजी , बधाई..

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 20, 2014 at 11:31am

विवशता आदमी को किस किस तरह से लाचार कर देती है , एक अच्छी  लघु कथा हेतु बधाई प्रिय जीतेन्द्र जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 20, 2014 at 10:58am

दिल को छू गई ये कहानी कही गरीबी कहीं रिश्तों के प्रति असंवेदन शीलता इंसान जिए तो कैसे जिए बहुत से सवाल खड़े करती है लघु कथा ,बहुत-बहुत बधाई जितेन्द्र भैया 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 19, 2014 at 11:16pm

आदरणीय शुभ्रांशु जी,

आपके स्नेहिल मार्गदर्शन का ह्रदय से आभारी हूँ. आपका कहना बिलकुल सही है, लघुकथा में कई पहलू स्पष्ट नही हो पाए है. जिनके लिए मैं प्रयासरत हूँ. अपना स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 19, 2014 at 11:10pm

आदरणीय रवि जी,

लघुकथा पर आपकी पारखी नजर और आपके व्यक्तिगत  विचार से मैं पूर्ण सहमत हूँ. आपका कहना बिलकुल सही है विषय वस्तु यथार्थ से बहुत दूर हो गया है. शायद मुझे रचना को और अधिक समय देना था. किन्तु लघुकथा को  सनसनीखेज बिलकुल नही बनाना चाहता था. इसे मर्मस्पर्शी बनाना चाहता हूँ. आपने लघुकथा में जो कमियां थी उन्हें स्पष्ट किया उसके लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. स्नेह व् मार्गदर्शन हमेशा बनाये रखियेगा

सादर!

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